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maharaja suheldev

2. आधा-अधूरा इतिहास 

(
इस लेख को पूरा पढिए मेरा यह लेख तुमुल तूफानी साप्ताहिक मुरादाबाद ;प्र; के 24 सितम्बर 2009 अंक में छप चुका है )
(
लेखकआचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘’राजगुरू’’) वे बुजुर्ग मेरे पिता की उम्र के थे नेपाली नागरिक थे मैं अपनी पुत्री श्रद्धासिंह से मिलने नेपाल गया था (मेरी पुत्री श्रद्धासिंह नेपालदेश में विवाही है ) उन्होंने मुझसे भारत की ताजा स्थितियों पर चर्चा चर्चा के दौरान मुझे लगा कि वे भारत के विषय में मुझसे अधिक जानकारी रखते हैं मुझे आश्चर्य हुआ कि वे भारत की अधिकांश समस्याओं के लिए पण्डित जवाहरलाल नेहरू को जिम्मेदार मानते हैं जब भी मैं किसी विषय पर चर्चा करता तब भी कहते ऐसा नहीं ,ऐसा है मैंने नेपालदेश के सम्बंध में चर्चा प्रारम् कर दी मैंने कहा आजकल नेपालदेश हडताल का देश हो गया है नेपाल के पहाडी क्षेत्र और तराई क्षेत्र में काफी तनाव चल रहा है पहाडी और तराईवासियों में हद से अधिक बैर पनप रहा है इस पर भी उन्होंने कहा कि इसके लिए भी पण्डित जवाहरलाल नेहरू दोषी हैं मेरी समझ में नहीं रहा था कि इस समस्या के लिए पण्डित जवाहरलाल नेहरू कैसे दोषी हो सकते हैं उनने बतलाया कि नेपाल का तराई क्षेत्र भारत का ही हिस्सा था कुछ कारणों से ईस् इण्डिया कम्पनी ने तराई क्षेत्र सौ डेढ सौ वर्षों के लिए नेपाल को लीज पर दे दिया था बहुत पहले यह समय समाप् हो गया किन्तु नेहरू जी ने इस भूमि को वापस नहीं लिया लीजडीड एग्रीमेन् के दस्तावेज कलकत्ता में हैं लेकिन किसी ने सुधि नहीं ली मैं उनकी बातें किस्सा कहानी के समान सुनने लगा  
उन्होंने बताया कि उस समय जब भारत स्वतंत्र हुआ था तब नेपाल के महाराजाधिराज ने भारत गणराज् में सम्मिलित होने की इच्छा जताई थी वे दिल्ली जाकर सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिले थे और कहा था कि आप नेपाल को भारत में विलय का मसौदा तैयार करलें मैं हस्ताक्षर कर दूंगा सरदार वल्लभभाई पटेल इसके लिए तैयार हो गये थे ,किन्तु नेहरू जी ने अस्वीकार कर दिया था सरदार वल्लभभाई के कहने पर भी उन्होंने अपनी जिद नहीं छोडी यदि नेपाल भारत का अंग हो गया होता तो आज तस्वीर कुद और होती  
उन्होंने सरदार वल्लभभाई पटेल के विषय में कहा कि वे बहुत जीवट वाले व्यक्ति थे लौह पुरूष थे बहुत सी ऐसी बात हैं जिन्हें नेहरू जी नहीं चाहते थे किन्तु वल्लभभाई पटेल ने नेहरू जी की बातों को नजरन्दाज कर स्वेच्छा से कार्य किया

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8 टिप्पणियाँ

  1. भगवान बुद्ध के महापरिनिब्बान 483 ई0पू0 के समय भारत आठ गणराज्यों में विभक्त था।
    1. कपिलावस्तु के शाक्य
    2. पिप्पलीयवन के मोरिय (मौर्य)
    3. रामग्राम के कोलिय (कुर्मी)
    4. कुशीनगर के मल्ल
    5. पावा के मल्ल
    6. अल्लकप्प के बुल्लि
    7. वैशाली के लिच्छवी
    8. वेठद्वीप के द्रोण
    इन आठों गणराज्यों के राजाअ में परस्पर वैवाहिक सम्बन्ध होने से गणतन्त्र प्रणाली की अखण्डता लम्बे समय तक बनी रही।
    (महापरिनिब्बानसुत्त)
    अब प्रश्न यह है कि प्राचीन भारत के इन आठ गणराज्योें के राजवंश के लोग वर्तमान समय में कहा चले गये, असल में इन तत्कालीन राजवंशों की वंशावली आज भी वर्तमान भारत में विद्यमान है। उन्हे पता ही नही कि उनके पूर्वज राजा थे।
    मूल राजवंशों के राजाओं द्वारा भगवान बुद्ध कीे शिक्षा के अनुसार शासन करने के कारण प्रबद्ध भारत अपने शिखर पर पहॅंच चुका था। इतिहास साक्षी है विश्व के लोग आकर्षित हुए प्रबुद्ध भारत के विद्या व संस्कृति, धर्म की ओर।
    1500 ई0पू0 मेसोपोटामिया की सभ्यता से आये विदेशी वैदिक अपने कर्म-काण्ड पशु, नर बली संघारक अन्धमान्यताओं सोम-सुरा इस प्रकार के आचरण को उन दिनों के भारत में वैदिकों को अधोगति अनार्य सेवित धर्म की संज्ञा दी गयी।
    (आम्बट्टसुत्त,पालिकच्चायन व्याकरण)

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  2. वैदिक विदेशी जातिया अन्दर ही अन्दर मूल प्रबुद्ध भारत के सम्यता संस्कृति का विरोध कर रहे थे। तत्पश्चात् 190 ई0पू0 में वैदिक कुम्हरील भट्ट का शिष्य पातंजली व पुष्यमित्र शुंग ने मूल भारतीय राजवंशों का विनाश कर भारतीय जनता को वैदिक आनार्य सेवित धर्म के बल पर मानसिक गुलाम बना डाला जिससे मूल राजवंशों व प्रबुद्ध भारत का अस्तित्व खतरे में पड़ गया।
    इस घटना ने भारत देश को अन्धकार, विदेशी आक्रमण व हजारों वर्षों की गुलामी में ढकेल दिया इस देश से प्रबुद्ध भारत का विनाश का मूल कारण केवल वैदिक व मनुवादी साजिश के तहत भारतीय जनता पर अमानुषीय आक्रमण था, इस आक्रमण में हजारों लाखों हत्यायें व विहार, मूर्तिया, पुस्तकालय जलाई, तोड़ी गयी।
    (मौर्योत्तर भारत का प्रचीन इतिहास)
    भगवान बुद्ध के महापरिनिब्बान के समय मल्ल राजाओं ने भगवान की अस्थियाॅं प्राप्त की थी। वो इन पर मौर्य राजाओं की भाति स्तूप बनाकर पूजा करते थे। जिसका स्वरुप अपभ्रंश होकर वर्तमान समय में शिवलिंग के रुप में विद्यमान है। शिव साधना करने के कारण ये भारशिव कहलायें उन दिनों के भारत में भारशिव का अर्थ मंगल का प्रकाश या प्रज्ञा से था। ध्यान (विप्पस्सना) साधना की वह अवस्था, जिसमें अपनी प्रज्ञा जगाकर अपना मंगल साध लिया हो। जबकि वर्तमान समय में शब्द की परिभाषा ही दूषित हो चुकी है। मात्र एक कर्मकाण्ड अन्धमान्यताए प्रचलित है। सर्वप्रथम भगवान बुद्ध ने कुशीनगर व पावा के क्षत्र्रियांे को मल्लसुत का उपदेश किया रक्षा मल्ल युद्ध विद्या का विकास करने के कारण मल्लराजवंशी कहलाये।
    (वर्तमान समय में तत्कालीन मल्लयुद्ध विद्या बौद्ध देशों में कुम्फु, कराटे इत्यादी के नाम से जाना जाता है।)
    (मल्लसुत्त)
    भारशिव से ही आगे भारत शब्द का प्रचलन सम्भव हुआ।
    495 ई0पू0 में मल्ल राजकुमार वंधुल विद्यार्थी जीवन में तक्षशिला में राजकुमार प्रसेनजित के सहपाठी और मित्र थे। शस्त्र विद्या में निपुण दोनों घर लौटे, जब प्रसेनजित राजगद्दी पर बैठे, तब उन्होने राजकुमार बन्धूल को अपना सेनापति बना लिया। राज्य की रक्षा के लिए, राजकुमार बन्धुल का युद्ध अभियान इतिहास प्रसिद्ध है। महाराज प्रसेनजित कौशल के स्वामी थे। शाक्यों का जनतंत्र भी उनके अधिन था। इसी प्रकार कोलिय (कुर्मी), मल्ल (राजभर) मोरिय (मौर्य) गणराज्य और कालमा प्रदेष भी। महाराजा प्रसेनजित के भाती राजकुमार बन्धुल भी भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के अनुसार शासन करते थे।
    (धम्मपदअट्ठकथा)
    लगभग 996 ई0 में श्रावस्ती के सम्राट मौर्यराज (मोरद्वाज) तथा मल्ल महारानी भारदेवी का पुत्र राजकमार सुहेलदेव (शिविदेव) का जन्म लगभग 1011 ई0 में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दर्शी को हुआ था।
    राजकुमार सुहेलदेव 1027 ई0 में श्रावस्ती सम्राट बनें। अल्लकप्प के बुल्लीयों की राजकुमारी बुल्लीया देवी राजकुमार सुहेल देव की प्रधान महारानी बनी। (जहाॅं तक है कि बुल्लीयों से ही वर्तमान जिला-बलिया (उ0प्र0) बना है।)
    राजा सुहेल देव एक पराक्रमी शासक थे। उन्होंने अपने पराक्रम से एक साम्राज्य का निर्माण किया। पहले उनका ध्यान भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों की ओर आकृष्ट हुआ, जिससे विदेशी आक्रमणकारी व्यग्र हो गये। इसके उपरान्त 1035 ई0 में उन्होने मुहम्मद गजनवी का भांजा मुस्लिम विदेशी, आक्रमणकारी सलार मसूद गाजी को वहराइच के मैदान में भाकल नदी के तट पर उसके सैनिको समेत गर्दन काट अपने राज्य के पत्थर स्तम्भ पर टगवा दिया, और अपने विजय व पराक्रम का परिचय दिया। सम्राट सुहेलदेव (शिविदेव) का सम्राज्य श्रावस्ती, अयोध्या, कुशीनगर पावा को मिलाकार मल्लराजवंश की राजधानी मल्लजनपद बनाई गयी। विदेशी आक्रमण कारीयों का दमन कर इस प्रकार राजकुमार सुहेलदेव अपनी साम्राज्य सुरक्षा निति का अनुसरण करते हुए, शस्त्र विजय की और कहलाये राजभार पुत्र श्रावस्ती सम्राट।
    (सम्राट मौर्यराज व मल्ल महारानी भार देवी से-राजभार शब्द का प्रचलन जान पढ़ता है।)
    विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी के नजर में योद्धा सुहेलदेव की तलवार खट्क जाने से खट्टीकराज की उपाधि प्राप्त करने में समर्थ रहे। जिसे राजा सुहेलदेव को खट्टीकराज भी कहा गया। कालान्तर में जब शिविदेव का प्रभुत्व समाप्त हुआ तब पावा के मल्ल (पावा से) होने के कारण पासीराज कहलाये।
    मल्लों के हाथों में सोने जैसी कही अधीक तलवार सुशोभित हुई जिसे इन्हें सोनकर सैनिक सम्राट कहा गया।
    (कुशीनगर व पावा के मल्ल आगे चलकर भर, भील, पासी, कोल, भील, खट्टीक, बिन्द, बियार आदि (आटवीक-जलगी) जातियों में विभक्त हो गये।)
    (गाजेटियर कर्नल टांड व शुक्ला)

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  3. राजकुमार सुहेलदेव (शिविदेव) ने सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों में भी अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। प्रबुद्ध भारत साहित्य कला के विभिन्न अंगों का उनके शासन काल में विकास हुआ। उन्होने मौर्य सम्राटों की भाति बुद्ध विहारो का पुनः सरक्षण, मठों को दान, तथा नये विहारों का निर्माण कराया। उन्होने अपने राजप्रसाद को पुनः निर्मित कर उसे अत्यन्त उत्कृष्ठ रुप प्रदान किया। उन्होने अपनी राजधानी को भव्य स्तर पर सुसज्जित किया। उस समय मिट्टी की पट्टियों पर सुलेख लिखने की कला का प्रचलन था। जिसे पट्शिला कहा जाता था। इस प्रकार भारत के मूल जातियों तथा मल्लराजवंश पर शोध कार्य जारी है। जिससे हमे आश्चर्य जनक परिणाम मिल रहे है।
    लेखकः
    सारनाथ, वाराणसी

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  4. लेखक
    सिद्धार्थ वद्र्धन सिंह
    पालि एवं बौद्ध दर्शन विभाग
    काशी हिन्दू विश्वविधालय
    वाराणसी-221005
    मो0 नं0 09473529020

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  5. लेखक
    सिद्धार्थ वद्र्धन सिंह
    पालि एवं बौद्ध दर्शन विभाग
    काशी हिन्दू विश्वविधालय
    वाराणसी-221005
    मो0 नं0 09473529020

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  6. राजकुमार सुहेलदेव (शिविदेव) ने सांस्कृतिक और धार्मिक क्षेत्रों में भी अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये। प्रबुद्ध भारत साहित्य कला के विभिन्न अंगों का उनके शासन काल में विकास हुआ। उन्होने मौर्य सम्राटों की भाति बुद्ध विहारो का पुनः सरक्षण, मठों को दान, तथा नये विहारों का निर्माण कराया। उन्होने अपने राजप्रसाद को पुनः निर्मित कर उसे अत्यन्त उत्कृष्ठ रुप प्रदान किया। उन्होने अपनी राजधानी को भव्य स्तर पर सुसज्जित किया। उस समय मिट्टी की पट्टियों पर सुलेख लिखने की कला का प्रचलन था। जिसे पट्शिला कहा जाता था। इस प्रकार भारत के मूल जातियों तथा मल्लराजवंश पर शोध कार्य जारी है। जिससे हमे आश्चर्य जनक परिणाम मिल रहे है।
    लेखकः
    सारनाथ, वाराणसी

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  7. हिंदू राष्ट्र वीर महाराजा सुहेलदेव राजभर की जय हो राजभर हिस्ट्री लिखने वाले महान मान्यवर प्रणाम करता हूं आप इसी तरह से समाज को जागृत करने के लिए आप इतिहास को खोज खोज कर भर राजभर जाते हुए बारे में लिखिए ताकि हमारा समाज अपने मान सम्मान को ऊंचा करके जिंदा रहने का कोशिश करें

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