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राजभर की चौथी चिट्ठी सभी जातियों एवं देशवासियों को समर्पित- दिनांकः 29.09.2016

यहां राजभर, चंदेल, गोरखा एवं सोइरी के संबंध में श्री बल्देव सिंह चंदेल की पुस्तक पर आधारित-
पुलिस निरीक्षक अर्जुनवंशी अवधेश कुमार राय राजभर की चैथी चिट्ठी सभी जातियों एवं देशवासियों को समर्पित- दिनांकः 29.09.2016
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देश के सभी जाति के लोगों आईयें वर्ष 1948 ई0 में एक राजपूत श्री बल्देव सिंह चंदेल निवासी राजेपुर पो0 राजेसल्तानपुर फैजाबाद वर्तमान जनपद अम्बेडरकर नगर, उ0प्र0 द्वारा राजभर समाज के बारे में प्रकाशित पुस्तक की समीक्षा करें । समीझा के लिये उसको उसी प्रकार से कम्प्यूटराइज करके आप सभी के अवलोकन हेतु भेज रहा हूॅ ।
यह लेख वर्ष 1948 में ही लिखी कर प्रकाशित किया गया था। श्री बल्देव सिंह का मै दिल से आभार व्यक्त करता हूॅ । यद्यपि उनके लेख में बंशावली छिन्न-भिन्न है, लेकिन इनके इस लेख से मुझे यह ज्ञात हुआ कि श्री बल्देव सिंह ने वर्ष 1948 में ही राजभर जाति का इतिहास लिखकर यह बता दिया था कि आल्हा उदल न होते तो शायद पृथ्वीराज चैहान चंदले/राजभर जाति का समापन 1192 ई0 में ही कर दिये होते । हमने अपनी पहली चिट्ठी जो भर, जाट, बोस, बाल्मिकी, बिन्द, पासी, खरवार जाति की लिखी बंशावली है उसमें स्पष्ट कर दिया है कि आल्हा उदल भीम की पत्नी हिडब्बा के पुत्र घटोत्कक्ष वंश से आये थे । इसी में वाल्मिकी जाति का उदय हुआ है। जब राजभर क्षत्रिय जाति यथा चंदेल, गहरवार के रूप में थे तो बाल्मिकी बनाफर क्षत्रिय के रूप में थे ।
फिर भी श्री बल्देव सिंह जी की तारीफ करनी होगी कि उन्होने अपने लेख में एक इशारा तो वर्ष 1948 में कर दिया था कि आल्हा उदल राजभर बिरादरी के ही थे ।  राजभर जाति क्यों प्रचलित हुआ उसके बारे में कहा है कि राज का भार वहन करने के कारण राजभार या राजभर कहे गये। यद्यपि गोरखा जाति की उत्पत्ति अर्जुन की पत्नी चित्रांगदा से हुई है। चित्रांगदा का पुत्र वभु्रवाहन मणिपुर का राजा हुआ था । श्री बल्देव सिंह ने अंकित किया है कि गुरू गोरखनाथ जी ने राजभरों को गोरखा कह दिया था। अर्थात इन्होनें 1948 में ही कह दिया था कि गोरखा भी राजभर है।
कुल मिलाकर श्री बल्देव सिंह चंदेल का राजभरों के बारे में प्रकाशित पुस्तक से मेरे द्वारा संक्षिप्त इतिहास के रूप में पहली चिट्ठी के रूप में भेजा गया लेख पूर्ण रूप से प्रमाणित हो जाता है । राजभर जाति के लिये अब अवसर आ गया है कि वह अपने वंश का नाम रोशन करने के लिये अपने कर्मो का स्व मूल्यांकन करें और यदि कोई बुराई है तो उसे दूर करें तथा अच्छाई व उचाई के लिये क्या-क्या करना है उसका चिन्तन प्रारम्भ करके इस जाति के इतिहास को दोहराने का कार्य शुरू कर दें ।
संक्षिप्त रूप में बल्देव जी ने कहा है कि राजभर चंदेल ही थे, लेकिन परिस्थितियों वश राज का भार वहन करने के लिये राजभार, धन की सोइरिया करने के कारण सोईरी,गुरू गोरखनाथ के मुह से गोरखा कहागया है ।
            राजभर जाति में आपस में इतना नफरत है कि देखकर थकाई आ जाती है। इनका आपस में नफरत बिला वजह का होता है । अपनी बिरादरी के व्यक्ति का विकास देखकर उसे बर्दाश्त नही कर पाते हैं। उसे नीचा दिखाने के लिये ऐसी जातियाॅ विशेषकर भूमिहार ब्राहमण व ठाकुर जो इस जाति को राजा से रंक बनाये है, उनसे मिलकर गणित का खेल करते हैं। जमीन का भाई-भाई में विवाद कराकर, जमीन बेचवाकर या उनके खिलाफ पुलिस कार्यवाही कराकर जैसे भी नुकसान कराना हो कराते है।  
इस नफरत से किसी को नष्ट करने के बजाय उससे विकास में आगे बढ़ने की होड़ लगाना चाहिए । एक विद्वान ने कहा था जिससे नफरत रखते हो उसका नुकसान करने के बजाय उसके विकास से अपना विकास दुगुना करके उसे नीचा करों । यदि उसका एक मंजिला मकान है तो अपना दो मंजिला मकान बनाकर बदला लो । विकाश का युद्ध करों । बरबाद करने का युद्ध बन्द करों ।

राजभर जाति का इतिहास
लेखक व प्रकाशक- बलदेव सिंह चंदेल (राजभर)
मु0 राजेपुर पो0 राजे सुल्तानपुर जिला फैजाबाद (उ0प्र0)


भूमिका
मानव जीवन में कुछ ऐसे विचार-धारायें निरन्तर कार्य करती है, जिसे बरबस प्रकाशित करने के लिये मजबूर होना पड़ता है । प्रस्तुत पुस्तक में मैने सिर्फ अपने हृदय के उन उद्गारों को जो मुझे निरन्तर छिन छिन पर उन्मत, स्तंमित और रोमांचित  बनाया करते हैं । मैने करबद्ध कर समाज के नव जीवन के पथ पर बढ़ने वाले, भावी समाज के निर्माताओं का रास्ता निःष्कन्टक बनाने की हिमयत की है। कृपालु पाठकों की सेवायें अपनी पहली पुस्तक ’भारतवंश’ इतिहास, जिसमें महाभारत, आल्हा काण्ड, गढ़ कुंडार और राजभर जाति का संक्ष्प्ति इतिहास से मदद लेकर रचना की है ।
जिसमें उत्पत्ति विकास पतन और पतन के बाद की दुर्दसा चानी संक्षेप में लेकर उपस्थित होते हुये मुझकों बड़ा संकोच मालुम पड़ता है । पाठकों से विशषकर समाचालोचकों से मेरी सविनय प्रार्थना है कि ’’औरी’’ को एक अत्यंत अशिक्षित बालक को बाल रचना समझकर इसमें के अपर्णता और गलती की ओर ध्यान दें । पत्र व्यवहार करें, मैं आपके सुझावों का सहर्ष समर्थन करूॅगा और इसमें अपशब्द पर विचार न कर मुझे कृतार्थ करें । क्योंकि सज्जन गुणग्राही होते हैं ।
राजभर जाति का
संक्षिप्त इतिहास
’’भारत वंश परिचय’’
विष्णु भगवान की नाभि से कमल, कमल से ब्रहमाजी, ब्रहमा से अत्रिमुनि, अत्रिमुनि से चन्द्रमा, चन्द्रमा से चन्द्रवंश चला । चन्द्रमा से बुद्ध, बुद्ध से पुरू, पुरू से पुरूवंश चला । पुरू से जन्मेजय, जन्मेजय से प्रवीर, प्रवीर से नमस्य, नमस्य से चारूपद, चारूपद से सुद्यु, सुद्यु से बहुगब, बहुगब से सन्याति, सन्याति से अहम्याति, अहम्याति से सौद्राश्व, सौद्राश्व से ़ऋतेयु, ऋतेयु से रन्तिभार, रन्तिभार से सुमति, समुति से रैम्प, रैम्प से महाराजाधिराज दुष्यंत हुये।
आल्हा धुन-
इसी वक्त विश्वामित्र मुनि करें तस्या घोर ।
अखण्ड तपस्या देखकर इन्द्रासन गा डोल ।।
संभव विश्वामित्र मुनि ले इनद्रासन छीन ।
ताहि देखि घबराये इन्द्र भये मेनका धीन ।।
शीघ्र मेनका जा अभी विश्वामित्र के पास ।
ब्रहमचर्य को तोड़कर आओ मेरे पास ।।
कठिन तपस्या देख ऋषि की इन्द्र गये हैं हारी ।
तपतोड़न सुरपुर से भेजी सुधर मेनका नारी ।।
इक प्रेम की प्यासी बनी बनवासी वन में तुम्हारे आई।
नैन खोल देखों वैरागी वैरागिन क्या लाई ।।
एक अनेक भये जग निकी कीरति अटल पुकारी ।
आज है विश्वामित्र के जिसने आप तपस्या हारी ।।
विश्वामित्र तप भंग से मेनका रहि हरषाय ।
नौ मास गर्भ के बीते कन्या प्रगटी आय ।।
ये लगे तप में ओ चली स्वर्ग को ।
मार मन और पत्थर सा मन को बना ।।
जाने वाले तो चले अपनी राह ।
यह मुसाफिर नया किसका मेहमा बना ।।
कण्ड ने देखा दाना लिये एक पंक्षी ।
आ उड़कर कहीं को चला ।।
लेके पूरा पता हाल देखा सभी पाया।
कीचड़ में सुन्दर कमल इक पड़ा ।।
जिसने माया में फिर से फसाया ।
उन्हें आज बनना पड़ा उसका पालक पिता ।।
ओ शकुन से पली बनी शकुन्तला ।
फूली आश्रम में जा जैसे कल्पलता ।।
कण्व ऋषि के आश्रम में वो वनदेवी सुकुमारी।
सेवा मूरति के डोले संतन को सुखकारी ।।
ओही कन्या शकुन्तला जिन विश्वामित्र विसारी ।
कण्वमुनी कर पालन उसका अपनी करी दुलारी ।।
ऐसे तपस्वी जिनकी करनी ऊॅची जगत मझारी ।
उनकी कन्या करें न कैसे जग में नाम उजारी ।।
एक दिन दुष्यन्त खेलन शिकार वन में माडव्य के साथ गये ।
नही मृगा मिला उनको कोई राजा वन वन में फिरत भये।।
बढ़कर उत्तर दिश भूप गये रमणीक एक गुलशन देखा ।
घोड़न को बांधा वर नीचे नृप ने वह वृक्ष सघन देखा ।।
विश्वामित्र मुनि की कन्या शकुन्तला शुभ नाम प्रवीण बड़ी ।
तेजस्वी तरूण बिमल लोचन तन सुन्दर तेज हसीन बड़ी।।
शकुन्तला सखियों को साथ लिये गुलशन में नीर दिलाती थी ।
हर रंगों के गुल खिले हुये उनको लखलख शरमाती थी।।
इसी वक्त दुष्यन्त नृप गये गुलशन के तीर ।
नैना लगा नैन से जिगर घाव गम्भीर ।।
गन्धर्व विवाह किये नृप ने फिर यही अर्त फरमाई है।
मुनि की कह देना चरणरज नृप ने मम शीश चढ़ाई है।।
हो गई अलघु गलती मम नृप की इससे हमें निजात मिलें।
कह मृदुवानी अपनी राजाये आखिरी हस्तिनापुर चले।।

राजा की जुदाई में शकुन्तला अतिथि सत्कार बिमुख बैठी थी, दुर्वासा शाप देकर चले मगर प्रियम्बदा के आग्रह पर शापमोचन ंअंगूठी बताये कि राजा के हाथ पर रखने से कार्य सिद्ध होगा ।
अंगूठी खोई, शकुन्तलादिका वार्तालाप तथा दुष्यंत का दुर्वासा शाप बस न पहिचान कर धार्मिक भावों में:-
क्यों चाहत तूॅ पदुमिनी करन पातकी मोहि ।
अरू दूषित ममवंश को मैं पूछत हौं तोहि ।।
शकुन्तला अनजाने मनके मरम जुरति कहू जो प्रीति ।
उलटि वैर बनि जात फिर जगकी याही रीति ।।
सरिता निज तट तोरि जो रूखन देत खसाय।
नीर बिगारत आपनों शोभा देत नसाय ।।
मूर्छित होकर शकुन्तला गिरी धरणि पर आय ।
हेमकूट पर्वत शिखर मैनक तहॅ ले जाय।।
सर्व दमन पैदा हुये शकुन्तला के लाला ।
धीवर से अंगूठी मिली राजा हुये बेहाल ।।
इसी वक्त इन्द्रासन से सारथी इन्द्र के आते हैं।
दे इन्द्र निमंत्रण राजा को राजा इन्द्रासन जाते है।।
कालनेमि राक्षस वली ताकीबहु संतान ।
इन्द्रासन पर चढ़तही पहुॅच गया विमान ।।
गया विमान सामने तब राजा अति तीर चलाते है।
एक तीर जब लग एक को तब सारे चिल्लाते है।।
चन्द मिनट के देर से राक्षस हुये तमान ।
इन्द्र नृपति से कर मिला राजा किये पयान ।।
हेमकूट पर्वत शिख्र कश्यपादित के धाम ।
जाकर उनके चरण रज का कर लूॅ प्रणाम ।।
ज्ञान ध्यान की बात को सोचत हैं दुष्यंत।
भाग्यचक्र होता वली जा पहुॅचे सामंत ।।

इधर शकुन्तला सर्वदमन(भरत) को आगे आगे करके दूर जंगल की एक फुलवाड़ी मे ंपानी देने जा रही थी तब किसी ने कहा कि इधर से मत जाओं आगे एक बदमाश शेर रहता है। बच्चे को मार डालेगा । तब शकुन्तला ने कहाः-
आगे आगे जो जाता मेरा शेर है।
उसकी माॅ को डराते क्या अंधेर है।।

आगे बालक सोते शेर पास पहुॅचता है तो शकुन्तला कहती हैः-

शेर सोते को मारे नही क्षत्रिय ।
यह प्राचीन चन्द्र वंश की टेर है।।
बालक रूक जाता है तो फिर शकुतला कहती है-

बेटा सोते से पहलु लगा ले इसे ।
अस्त्र का फिर निशाना बना शेर है।।
बालक शेर को जगता है तब ’’औरी’’ कहते है। सुनो टेर ’’औरी’’-
उठा शेर हॅूकार कर जो ।
लालन ने मार दिया वही शेर है।।
आश्रम में गयी शकुन्तला दे गुलशन में नीर ।
सर्वदमन बाहर खाड़ा लेकर कर में तीर ।।
इस वक्त दुष्यंत नप हिरना पर बाण चलाया है।
सर्वदमन उस बाण को महिमें काट गिराया है।।
इसी वक्त इक शेर इधर से निकला कर चिंघार ।
बालक उसकी पूॅछ धर किया जोर हरवार ।।
जब शेर भागता आगे को पीछे बालक घिसराता है।
बारबार घिसरा करके मुॅह खोल शेर का कहता है।।
सर्वदमन खेला किया तुरन्त सिंह के साथ ।
दाॅत गिना मुॅह खोलकर मार भगाया लात ।।
मार भगाया लात हाथ का कंकन टूटा ।
मात पिता अरू पुत्र बरौर जरि जाय कोई जो छूता।।
यह देख पुत्रवत प्रेम वस राजा यह बचन सुनाते है।
हैं धन्य पिता माता तेरे चक्रवर्ती राज लखते है।।
क्या मातपिता का नाम तुम्हारे किस कुल में औतार लिया।
है बड़ा तेज बालक पन में मेरे दिल को तुम मात किया ।।
माता मेरी शकुन्तला पितु महाराज दुष्यंत ।
चन्द्रवंश मम जन्म है जानत हैं गुणवन्त ।।
कंकन,बालक, का गोद उठातहैं राजा का परिचय होता है।
खबर आश्रम जाते ही मुनियों का मजमा आता है।।
दर्शन कर सब मुनियों का राजा राजधानी जाते है।
महामुनी अंतरयामी निम्नांकिताशीर्वाद सुनाते है।।
कश्यप मुनिः-
सुखगामी रथ पैचढ़ी उतरि महोदधि पार ।
जीतैगौ यह वीर नर तीन द्वीप अरू चार ।।
किये पशू सब दमन यहाॅं सर्वदमन भौ नाम।
प्रजा भरण कर होयेगा फेरि भरत अभिराम ।।
विश्वामित्रः-
भरत होंयगे हस्तिनापुर में वीरधीर बलधारी ।
चक्रवर्ती राजा होइके भारत नाम करे जगजारी ।।
इनके पितु दुष्यंत कहावें शकुंतला महतारी ।
राजा भरत से राजभर जन्मै उनकी कथा रहे बिस्तारी ।।

दुर्वासा मुनि-
दुर्वासा ज्ञाता हुये लिये शब्द (राजाभरत) इक चार ।
जादू का दुईवर्ग(राजाभरत) बना सब उसमे ंदीन्हेंडार ।।
राजाभरत(राजाभरत) अन्तवर्ण दुई गई सुमिरिनी खाय ।
बाकी सो दो शब्द(राजभर) बना है सर्वदमन ले जाय ।।
कण्वमुनि-
राजा भरत शब्द होयगा उत्तमकुल की सृष्टि ।
राजभरों से होयगी महिमें धन की वृष्टि ।।
अदिति ऋषि-
चन्द्र वंशीय हैं ये चन्देला नाम कहायेगा ।
महिमें धन को सिउरेंगे तब सिउरी नाम कहायेगा ।।
(चिट्ठी लेखक का कथन- सोइरी ठाकुर मिर्जापुर व इलाहाबाद जिले मे ंकाफी हैं। यह राजभर जाति की लड़कियों से शादी करते हैं, लेकिन अपनी लड़की राजभर को नही देते हैं । यह अपनी लड़की की शादी मानस ठाकुर जो मान सिंह जिसने अकबर का साथ दिया था के कुल के हैं उनके यहाॅं करते हैं । यह मानस ठाकुर भदोही के भर राजाओं को नष्ट करने में अहम भूमिका निभायें हैं । जो राजभर राजाओं को ंनष्ट किये हैं उनसे सावधान होना बहुत जरूरी है अन्यथा यह समझेंगे कि राजभरों का जितना नुकसान करों उन पर कोई फर्क नही पड़ता । यदि सोइरी ठाकुर राजभर के यहाॅं अपनी लड़की की शादी नही करते हैं तो राजभरों को इनके यहाॅ अपनी लड़की की शादी करना बन्द कर देना चाहिए )
गौतमी ऋषि-
रज को धन से भर देंगे तब रजभर नाम कहायेगा ।
राज का भार संभालेंगे तब राजभार नाम कहायेगा ।।

तीनों राजधानी गये वहाॅं कुछ दिन के बाद यथा समय महाराजा धिराज दुष्यंत के सन्यास के पश्चात् चन्द्रवंश में महाचक्रवर्ती महाराजाधिराज भरत राजा हुये । बुद्धिमती माता की शिक्षा पाकर भरत बड़ा शूर वीर, प्रतापी, तेजस्वी और बुद्धिमान हुआ। उसने अपने पराक्रम और प्रताप से सातों द्वीपों को जीतकर चक्रवर्ती राज्य किया । पहले इस का नाम आर्यावर्त था, परन्तु महाराजा धिराज भरत की प्रतिभा से यह देश उसी के नाम से भारतवर्ष कहलाने लगा ।
भरत के कई रानियाॅ थी जब उनको बच्चा पैदा होता तब बच्चों के हाथो में चक्रवर्ती राजा के लक्षण न देखकर फेक देती थी । इसी तरह राजा का चैथापन आ गया और संतान की चिन्ता हुई, तब राजा यज्ञ द्वारा संतान पाने की इच्छा किये । यज्ञ रचा गया । देवताओं ने उसी बच्चे को जिसे रानी ने अभी फेकवा दिया था लाकर यज्ञ से प्रकट कर राजा को दिया । राजा बालक पाकर बहुत खुश हुये । इसी बालक का नाम भरद्वाज (वितथ) रक्खा गया। यही भरतवंश, भारतवंश के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
(चिट्ठी लेखक का भरद्वाज के संबंध में कथन- अंगिरा के पुत्र उतथ्य एवं बृहस्पति थे । ममता उतथ्य की पत्नी थी । उतथ्य के संपर्क के कारण वह गर्भवती थी । इसी बीच बृहस्पति भी नाजायज सम्पर्क बनाये । इस नाजायज संबंध से जो पुत्र हुआ उसका नामकरण करते समय उतथ्य एवं बृहस्पति ने ममता से कहा यह बच्चा हम दोनों के संबंध से उत्पन्न हुआ है इसलिये द्वाज हुआ तथा तुम इसका भरण-पोषण करों तो तुम भर होगी । इसी दो शब्द से भरद्वाज नाम पड़ा । इस बालक को तिरस्कृत कर दिया गया था। यज्ञ विफल होने पर इसी भरद्वाज को मरूत देवताओं ने भरत जी को दिये थे । भरद्वाज के बालक रूप में मिलने के बाद भरत की पत्नी सुनन्दा से एक पुत्र हुआ था जिसका नाम भूमन्यु पड़ा था। )
भरद्वाज से सुहोत्र, सुहोत्र से हस्ती (हस्तिनापुर) हस्ती से आजमीढ़ आजमीढ़ से संबरण हुये ।
सुनिये सज्जनों भरत कुल में संबरण भूप सर नाम हुये ।
देवताओं से संबंध हुआ कुरूराज सुपुत्र महान हुये ।।
कह आदि शक्ति हो सुपुत्र जग में अति सुयश बढ़ायेगा।
कुरू नाम पड़ा कुरू क्षेत्र रचे तीरथ कुरू क्षेत्र कहायेगा।।
चैरासी कोस एक दिन में भूपति जमीन जब जोती है।
सुर मुनि जयजयकार करें यह कठिन तपस्या होती है।।
रणभूमि बड़ी उत्तम होगी लड़कर जो प्राण गवायेंगे ।
हो सके न उनकी रोक टोक भट सीधे स्वर्ग सिधायेंगे।।
कुरू से (कौरव वंश) चला,कुरू से जन्मेजय, जन्मेजय से धृष्टराष्ट्र,
धृष्टराष्ट्र से प्रतीप, प्रतीप से शान्तनु, शान्तनु की धर्म पत्नी से व्या देव, व्यासदेव के योगबल से धृष्टराज और पांडु से क्रमशः सौ भाई कौरव और पाॅच भाई पांडव हुये । इन भाईयों मे ंमहाभारत का युद्ध हुआ ।
(महा$भारत )महा=बड़ा×भारत= भारत वंश, पांडु से पांडव वंश चला। पांडु से अर्जुन, अर्जुन से अभिमन्यु, अभिमन्यु से परीक्षित, परीक्षित के राज्यकाल में कलियुग का वास हुआ । परीक्षित से जन्मेजय, जन्मेजय से शतानीक और शंकु हुये । इनके कुछ दिन बाद यहाॅ गौड़ो का राज्य हुआ । इनके सम्राट पाटलिपुत्र में थे । पश्चात् प्रयाग के मौर्य के बाद यहाॅं पड़िहारों का राज्य हुआ । इनकी राजधानी मउसहानियाॅ हुई।
फिर कलियुग के कुछ वर्ष बीतने पर आठवीं शताब्दी के लगभग खजुराहों और मनियाॅगढ़ के करीब नगर चन्देली में चन्द्रवंशीय महाराज चन्द्र ब्रहम का उदय हुआ । चन्द्रब्रहम को प्रसन्न होकर चन्द्रदेव ने पारसमणि दी । चन्द्रब्रहम से वीरब्रहम, वीर ब्रहम से रूप ब्रहम, रूप ब्रहम से ब्रज ब्रहम, ब्रज ब्रहम से वन्दन ब्रहम, वन्दन ब्रहम से जग ब्रहम, जगब्रहम से सत्य ब्रहम, सत्य ब्रहम से सूर्य ब्रहम (सूर्यकुण्ड) सूर्य ब्रहम से मदन ब्रहम (मदन ताल) मदन ब्रहम से किर्ति ब्रहम (किर्ति सागर) किर्ति ब्रहम से परमर्दिदेव ब्रहम (परिमाल) हुये ।
सन् 1182 ई0 में पृथ्वीराज ने परिमाल से पहूज नदी के किनारे सिरसा गढ़ पर लड़ कर चंदेलों(राजभरों) का राज्य, श्री, गौरव अस्त व्यस्त कर दिया। आल्हा के कोप से सारी पृथ्वीराज की सेना मारी गई । गुरू गोरखनाथ आल्हों को समझा और चंदेलों(राजभरों) का नाम गोरखा रखकर और कुछ चुने चंदेलों को साथ ले कजरी वन तपस्या करने चले गये ।
आल्हा चन्देले गये कजरी वन सोनवां जरी कुड में जाय।
मल्हना चलि भइ परस लइके सागर होम दियो करवाये।।
पूजा करके वा पारस को बोली हाथ जोरि महरानि।
चन्द्रवंश में जो कोई होवे महोबा आय लेय औतार ।।
ताघर अइहों तुम पूजन हित नाहि तुम्हें औरों से काम ।
यह कहि पारस पत्थर लेइके सो सागर में दियो सराय।।
अब पृथ्वीराज महोबा पर अधिकार करके अपने सामंत खेत सिंह खंगार (चंदेल) को गढ़ कुंडार का हाकिम नियुक्त किया ।
सन् 1192ई0 में पृथ्वीराज स्वयं शहाबुद्दीन गोरी से परास्त हुये । सन् 1192 ई0 में गढ़ कुंडार स्वतंत्र हो गया । इसको मातहतों में अनेक क्षत्रिय सरदार थे । वीर पाल माहौनी (पाली या बुन्देल खंड) के सरदार, भरतपुरा के हरि सिंह चंदेल, देवरा के चमूसी पड़िहार आदि ऐसे ही सरदरों में से थे । सोहन पाल अपने बड़े भाई वीर पाल को मार कर बुन्देल खंड का राजा बनना चाहता था । वह गढ़ कुडार और भरतपुरा की मदद चाहता था । इसीलिए वह हरीसिंह के यहाॅं नौकरी करता रहा । उसके हेमवती और रूप कुमारी ( चन्द्र कुमारी) नामक दो सुरूपा लड़की थी । गढ़ कुंडार के राजकुमार नागदेव इन दिनों यहीं पर थे। क्योंकि भरतपुरा पर मुसलमानों के डपो पड़ रहे थे ।
इसी से छः मील लम्बा आन्तरिक मार्ग सोहन पाल को मालुम हो गया । हेमवती नागदेव और रूप कुमारी हरी सिंह पर आशिक हो गयी । इन दिनों सोहन पाल करेरा में पुण्यपाल के पास गये । धीर प्रधान कायस्थ जो सोहन पाल का मंत्री था । सोहन पाल को समझाया कि आप हेमवती की सादी नागदेव और रूप कुमारी की शादी हरी सिंह के साथ कर दें ।
खंगार (चंदेले) और चंन्देले ऐसे अवसरो ंपर खूब मद्य पान करते हैं फिर उसी नशे में सबको स्वर्ग यात्रा करा निर्भय अटल राज्य भोग किया जाय। धीर दोनों राजाओं के पास जाकर बोला कि आप लोग सकुटुम्ब देवरा में शादी कर लें । सोहन पाल अपने साथियों और याचनाओं की सेनाओं के साथ देवरा में गया । सेनायें जंगल में छिपा दिया और कहा कि जनवास की रात से हर जगह चन्देलों पर धावा बोलकर लूट मार करना । शादी हुई । चन्देलों को पालों ने खूब मद्य पान कराया । उसी नशे में खंगारों का पूर्ण संहार किया । हरी सिंह वर बधू को कारागार किया । महल जला दिये । किले तोपों के निसाने बनाये और हर तरह से सर्वनाश किया, जिससे चंदेले फिर कभी न उठ सकें । सो सब हाल औरी माल उर्फ सामंत बल्देव सिंह गोरखा, आल्हा, गान आदि में लिखते हैं ।
आल्हा
जैति भवानी शारदा ज्ञानी गुरूगणेश ।
औरी की रक्षा करें ब्रहमा विष्णु महेश ।।
प्रथमहिं सुमिरों स्वरस्वती को जिन . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . .
. . . . . . . . . . . . . . . . . . .. . . . . .  दूसरें खण्ड में . . . . . . . .
पाली वाल धर्म सिंह (हरी सिंह) का धर्म छुड़ाते हैं ।
धर्म सिंह आप ही आप:-
अग्नि पलीती राज दंड चोर लूटि धन खाय ।
धर्म दण्ड अति कठिन है यह दुःख सहा न जाय ।।
धर्म सिंह सोहन पाल से:-
करलो कतल खुशी से हमकों उजुर नही है।
पयारा है धर्म अपनाजितना की सर नही है।।
खेने को धर्म अपना दोउ प्राणी मे ंन कोई ।
दीवार में चुना दो इसका भी डर नही है।।
हम धर्म बेच औरी लेंगे न जिन्दगी को ।
हैं राज्य के न भूखे दरकार जर नही है।।
जिस पुत्र ने पिता की मानी न नशीहत।
कहने को वह पिसर है लख्ते जिगर नहीं ।।
जिसने मनुष्य होकर रक्षा न धर्म की की।
सींगों से हींग पाकर पशु है वह नर नही है।।
चन्द्राः-
छोड़ों न तुम धरम के चाहे न प्राण तन से निकले ।
हो सत्य बात लेकिन मीठे बचन से निकले ।।
अगिनी का धर्म जब तक रहता है उसमें कायम।
नहिं सिंह की है शक्ति जो पास उसके निकले ।।
फिर अपना धर्म तज कर जब राख वह हो जाती ।
चींटी भी उसके ऊपर बेखौफ बनके निकले ।।
है धर्म की ये महिमा यदि धार लो इसे तुम।
शेरे बबर मानिंन्द शक्ति बदन से निकले ।।
इक धर्म काम आता ’’औरी’’ न संग जाता ।
परिवार के हाथ दोनों खाली कफन से निकले ।।
सोहनः-
तॅू मेरी बेटी सुकुमारी कहती है बात जबू न मुझे ।
फौरन ही कत्ल करू सर को चढ़ जाये आगजनून मुझे।।
चन्द्राः-बाहवा तुम मुझे कत्ल करोंगे । क्या नही जानते कि-
इस घोर अत्याचार का बदला तुम्हें मिल जायेगा।
इक आन में अभिमान सारा धूल में मिल जायेगा ।।
जो जुल्म करते हैं ओ दुनियाॅ में अमन पाते नहीं ।
बढ़ जाये वे कितना मगर इन्सान कहलाते नहीं ।।
जो जुल्म करने से मुकत्तर बाज हैं आता नहीं ।
जो नारियों के हाल पर मुतलक रहम खाता नही ।।
जो धर्म के अनुकूल सीध मार्ग पर चलता नहीं ।
सच जानियों संसार में ओ फूलता फलता नहीं ।।
जो दीन दुखियों पर सतत उपकार करते हैं सहीं ।
संसार में बस नाम अपना छोड़ जाते हैं वहीं ।।
यदि कत्ल धोखे में हुये हैं राज भर परिवार से ।
तो युद्ध में जायेंगी उनकी रानियाॅं उत्साह से ।।
मर्दो का काम देखना अवलायें करेंगी ।
निर्भय हो समर भूमि मे ंललनायें लड़ेगी ।।
हरगिज न फरिस्तों से भी बिधवायें डरेंगी ।
जीते जी नहीं धर्म से महिलायें टरेैंगी ।।
चाहें तो आसमाॅ को भी अबलायें हिला दें ।
यदि ध्यान में आ जाय तो मुर्दे को जिला दें ।।
दुनियाॅं की सभी ज्ञान को मिट्टी में मिला दें ।
चाहें तो खुश्क खार में भी फूल खिला दें ।।
सोहनपालः-
अगर धर्म नहीं छोड़ोंगे तो राज भर से भर जरूर कहेंगे । क्योंकि तुम राज रहित हो ।
धर्म सिंहः- नहिं-नहिं-
भारत के शेर फाड़ की अभी बाहु हैं जिन्दा।
अर्जुन के अग्नि बाण की रफ्तार है जिन्दा ।।
आल्हा की अभी तक यहाॅं तलवार है जिन्दा।
राजभर का अभी तक यहाॅं हरवार है जिन्दा ।।
रजभर की वीर कीर्ति की करते हो क्या निन्दा ।
बाहु में ’’औरी’’ के अभी खून हैं जिन्दा ।।
रजभर को भूलकर भर कहना नही बन्दा ।
खाते नही कुछ शर्म अभी वीर हम हैं जिन्दा ।।
       सोहन पाल हरी सिंह को अविचलित देखकर जागीरदार बनाया । हरीसिंह बचे हुये राजभरों से कहते हैं:-
मरते मरते मर गये लेकि न छोड़ी जान को ।
आके देखों भाईयों इस राजभर की शान को ।।
सैकड़ों झेली मुशीबत रज गज लाखों सहे ।
आन तक ढेढ़ी बचा ली दीन औ ईमान को ।।
कर दिखाओं है अगर हिम्मत और मरदानगी ।
जंगे दिल कब छोड़ते हैं जंग के मैदान को ।।
राजभरः- अत्याचार अनेक पलिवालों के मनमाने ।
निर्बल हुई शरीर और सत गया विराने ।।
धर्म सिंह:- वीर वंश भरत वंश है तेगा चलावनहार।
वीरन में सर्वोच्च है क्या है अत्याचार ।।
राजभर दुःख वरणनः-
जिस वक्त भारत में राजभर साम्राज्य का अवसान था।
उस वक्त पाली में सोहनपाल हुआ सुल्तान था ।।
छः फार लम्बा था सहा विकराल भौहें थी घनी ।
थे केश घुघुराले घने सूरत भयंकर थी बनी ।।
था स्वर महा कर कंस भयंकर मूछ दाडढ़ी थी घनी ।
तस्वीर दानव राज से भी थी महान भयावनी ।।
सो निर्दई निर्भिक घबराता न था संग्राम में ।
गफलत कभी करता नही था सल्तनत के काम में ।।
चट भेज धरि दूत लेकर राजभर की थाहको ।
कर मशीबरा फौरन बुलाया राजभरों को ब्याह को ।।
पदभार से पृथ्वी लगी उस काल थरथर काॅपने।
ब्याह राजभर को करा मदिरा पिलाया पालने।।
फिर कत्ल करने को चले रजभर डटे मैदान में ।
अग्नि वाण रजभर चलाये पाल छिपो तिरियान में ।।
बेफिक्र होकर राजभर जब सो रहे साम्यान में ।
कत्लवालों ने किया घुस राजभर दरम्यान में ।।
फिर आय पहुॅचे राजधानी चन्द दिन का कर सफर।
हाय अत्याचार बालों के सुनो उसका जिकर ।।
आग लगा दी गई घड़ों मे ंतोड़े नये किवाड़ गये ।
शवे वक्त मच गया शहर में भीषण हाहाकार हुये।।
हृदय विदारक शब्दों से करते बालक चिंघार जभी ।
हा किन्तु निर्दई इस पर ही देते भालों की मार तभी ।।
गया बिगाड़ा बल पूर्वक पावन सतीत्व रानियों का ।
किया गया अपमान हर तरह राजभर की ललनाओं का।।
भूसा भरवा दिया गया उफ पेटफार बिधवाओं का।
खींच कलेजा लिया गया भोली भाली माताओं का ।।
तोड़ जनेऊ दिया गया भोले भाले राजभरनों का ।
धर्म नाश हर तरह किया अरू मांस खिला सूकरनों का।।
उफ हो गया उजड़ शहर मारे गये रजभार हैं ।
हर एक घर मे ंहाय लाशों के लगे अम्बार है।।
’’औरी’’ राजभर घरों में आग लगवा दी गई ।
वह दृश्य था ऐसी घड़ी मानों प्रलयसी आ गई।।
धर्म सिंह:-
बचाओं धर्म चन्द्रकुल का अगर राजभर कहाते हों।
रखों कुछ लाज चन्द्रकुल का अगर राजभर कहाते हो।।
तुम्हारे खास धर्मधारी कहाकर चल गये जग से ।
न हो दाग चन्द्रकुल में अगर राजभर कहाते हो ।।
न बेचों धर्म तुम अपना करो उन्नति बने जितना ।
पाओगे फिर पारस मणि अगर राजभर कहाते हों।।
बढ़ाओं प्रेम आपस में अगर रहना अमर चाहों ।
बचों दुष्कर्म से ’’औरी’’ अगर राजभर कहते हों।।
औरी लालः-
जागो अब राजभरों घोर काल आया।
कहाॅ तक अब सोय पड़े वक्त क्यों गॅवाया ।।
घड़ी घड़ी पल रैन जात मेघ गर्जना सुहात।
विद्या बहु ज्ञात बीच प्रेम क्यो ंन लगाया ।।
थोरी अब बाकी रही दिन की अब भोर गई ।
अन्तकाल आन पड़े जायगा थकाया ।।
अविद्याा दूर डार पलट देखले उजार ।
नहीं तो फिर भूल गया काल आय खाया ।।
करणी कर वीरन की छोरदे अचतन की ।
याद कर भारत वंश’’औरी’’ क्यों भुलाया ।।
-दोहा-
जिनको न निज गौरव तथा निज जाति का अभिमान है।
वह नर नहीं नर पशु निरा ’’औरी’’वह मृतक समान है।।
औरी लाल- रजभर अभिमान से बढ़ता हुआ सान से ।
थकता नही थकता नही रजभर कभी थकता नही ।।
आफत को मार से चिन्ता की भार से ।
झुकता नही झुकता नही रजभर कभी झुकता नही ।।
शोक के पहाड़ से दुःखों की बाढ़ से ।
रूकता नही रूकता नही रजभर कभी रूकता नहीं ।।
खेलता है जान पर मिटता है आन पर ।
हटता नही हटता नही रजभर कभी हटता नही ।।
कर्तव्य के मैदान से रजभर कभी हटता नही ।
औरी लालः- सरस्वती माता जी के चरण मनायकर ।
लिखिनायों प्रथमों बयान प्यारे राजभर ।।
रजभर जतिया कै उच्च खानदानवां है।
उच्च कयुर्सिनमवां तुहार प्यारे राजभर ।।
चन्द्रवंश में से तुम्हारों जनम भइले ।
भरद्वाज गोत्र तुम्हार प्यारे राजभर ।।
अइसन उत्तम कुल में तुम्हरों जनम भइल ।
धनि धनि भगिया तुम्हार प्यारे राजभर ।।
सभा बीच हाथ जोरि कहे औरी लाल भाई ।
सब भाई छोड़ि दे शराब प्यारे राजभर ।।
तरिया शरबवा का सुनहू बयान अब ।
एके भक्षण करै लै पिसाच प्यारे राजभर ।।
तड़िया सरबवा मे ंराज्य सब नष्ट कईल ।
कलियुग में भरवा कहाव प्यारे राजभर ।।
अब से भी ख्याल करू छोड़िदेन सेली वस्तु ।
गइल राज्य फिर मिलि जइहै प्यारे राजभर ।।
यहीं खातिर सभा होवे एक राय होउ भईया ।
लौटिजाई दिनवां हमार प्यारे राजभर ।।
नोट- ये राजभरों । आप लोग अपनी गिरी दशा संभालिये, फिर ऐसा संभालने का मौका आपको न मिलेगा क्योंकिः-
हुकूमत ने आजादियां हमको दी हैं।
तरक्की की राहे सरासर खुली हैं।।
दुश्मन का खटका न गैरों का डर है।
निकल जाओं रास्ता अभी बेखतर है ।।
चेतावनी-
चेतावनी दी जाती है पंडित जवाहर लाल को ।
विचार कर देखे जरा इस दीन राजभर जाति को ।।
नेतृत्य किये महात्मा गांधी आम हिन्दू जाति का ।
न सिर्फ रजभर के लिये शोहदा हुये सब जाति का ।।
गांधी स्थान हिन्दोस्थन हो न कि भारत वर्ष हो ।
भारतवर्ष न गांधी स्थान हो ऐसा न अत्याचार हो ।।
आन, गौरव मान सब कुछ मिल गया है खाक में ।
शेष भारतवर्ष राजभर जाति के सम्मान में ।।
बरबाद न आबाद करों आप हिन्दू जाति को ।
माने बुरा न आप इस ’’औरी’’ की व्यंगन बात को ।।
-समाप्त-

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