भारशिव सम्राट वीरसेन
(शासनकाल 170 ईस्वी से 210 ईस्वी तक)-: भारशिव नागो का उत्थान सन147 के लगभग
सम्राट नवनाग के नेत्रत्व मे हुआ। नागो के जिस वंश को भारशिव नाग कहा गया है इसका
संस्थापक नवनाग थे। उन्होने कान्तिपुरी मे सर्वप्रथम अपना राज्य स्थापित किया था।
पुराणो के अनुसार नागो ने पद्मावती, कान्तिपुरी व मथुरा मे 7 पीढ़ियो तक शासन किया था।
महाराजा वीरसेन के पिता का नाम नवनाग था। (संदर्भ ग्रंथ – भारत मे प्राचीन हिन्दू
राज्य पृष्ठ 256-257 लेखक बाबू वृन्दावनदास)
महाराजा वीरसेन अत्यंत पराक्रमी
व प्रतापी शासक थे। वे मथुरा व पद्मावती शाखा के भी संस्थापक थे। इनका शासनकाल
तीसरी शताब्दी के मध्य तक जान पड़ता है। मथुरा मे इनके बहूत से सिक्के मिले है और
फर्रूखाबाद के जानखट मे भी उनके पुराने लेख मिले है, उक्त लेखानुसार वीरसेन का
अधिकार मथुरा से फर्रूखाबाद तक ज्ञात होता है। उसने संभवतः कुषाणो के अंतिम शासक
वासुदेव को पराजित कर मथुरा पर अधिकार किया
था। उसी उपलक्ष्य मे यज्ञों का आयोजन भी किया जाता था। उसने कदाचित नया
सवंत भी चलाया था। डाक्टर के.पी. जायसवाल के अनुसार उन्होने बनारस मे अश्वमेघघाट
10 यज्ञ किया था। (संदर्भ ग्रंथ हिस्ट्री आफ इंडिया पृष्ठ 1-3 तक लेखक के. पी. जायसवाल) (पूर्व ब्रज का संस्कृतिक
इतिहास भाग-2 , पृष्ठ- 96-97) लेखक प्रभुदयाल मित्तल। हलद्वीप के
राजा यज्ञसेन भारशिवनाग वंश के थे। कान्तिपुर के राजाधिराज वीरसेन के सेनापति
प्रवरसेन को काशी मे जब नवम अश्वमेध यज्ञ का आयोजन का भार दिया गया तो अपने पिछले
अनुभवो के आधार पर उन्होने निश्चित किया की साकेत से पाटलीपुत्र तक कुषाण नरपतियों
का जो पराभव अवशिष्ट रह गया है उसे समाप्त कर दिया जाय। उसी समय से भरशीवो का
हलद्वीप पर आधिपत्य हो गया । ये लोग साधारण जनता मे भारशिव या भर कहे जाते थे।
यज्ञसेन विजयसेन के पुत्र थे। और कान्तिपुर की ओर से हलद्वीप मे शासन करते थे।
संदर्भ ग्रंथ-पुनर्नवा पृष्ठ 34-35 लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी ) वीरसेन
ने मथुरा मे भी अश्वमेध यज्ञ किए थे। मथुरा के उत्तरी घाटो मे एक दशाश्वमेध घाट भी
है। इसके निकट गोकर्णेश्वर और नीलकंठेश्वर महादेव के प्राचीन धार्मिक स्थल है।
मथुरा मे यह अनुश्रुति प्रसिद्ध हाइकी यहां के नाग राजाओ ने इसी स्थान पर अश्वमेध
यज्ञ किए थे। इससे अनुमानित होता है की वीरसेन के अश्वमेध यज्ञ का स्थान यही स्थल
होगा। (संदर्भ ग्रंथ- ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास भाग-2, पृष्ठ
97 लेखक-प्रभुदयाल मित्तल)। मथुरा और गंगा से पूर्व संयुक्त प्रांत और पश्चिम
बिहार बुंदेलखंड, बघेलखंड मे जिन लोगो ने कुषाण साम्राज्य को हटाकर
पनि अपनी शक्ति जमाई थी वे थे। नागवंश के लोग। पुराणो के अनुसार उनके मुख्य केंद्र
विदिशा, पद्मावती (मथुरा से 125 मील दक्षिण ग्वालियर राज्य मे पदमपवाया), मथुरा व
कान्तिपुरी (जिला मिर्जापुर मे कांतित)। प्रसिद्ध नागरजा वीरसेन ने विदेशियों के
प्रसिद्ध गढ़ मथुरा मे भारतीय आधिपत्य की पुनः स्थापना की। एक वकाटक उत्कीर्ण लेख
से मालूम होता है की भारशिव सम्राट ने पूर्वी गंगा घाटी को जीतकर काशी मे दस
अश्वमेध यज्ञ किए थे। डाक्टर काशीप्रसाद जायसवाल ने पौराणिक साक्ष्य को विश्वसनीय
मानकर अथिलेख व मौद्रिक साक्ष्य की सहायता से यह सिद्ध किया है की कुषाणोत्तर
भारतीय इतिहास मे हिन्दू साम्राज्यवाद गुप्तों के अभ्युत्थान से नहीं उसके एक सदी
पूर्व वाकाटको के उत्कर्ष से भी नहीं, वरन उनसे भी अर्ध शताब्दी पूर्व कान्तिपुर के भारशिव
नागो-पुराणो के नवनागो से उदय हुआ। इनके अनुसार नागो के इस वंश का संथापक नवनाग था
और प्रथम प्रसिद्ध नरेश उसका उत्तराधिकारी था वीरसेन। उसने कुषाणो को पराजित करके
मथुरा, पद्मावती और विदिशा मे भी नागवानशों की स्थापना की। (संदर्भ
ग्रंथ- प्राचीन भारत का इतिहास 320 ईस्वी तक, पृष्ठ 733, लेखक श्रीराम गोयल)। वीरसेन का उदय केवल नागकांश के
उदय से ही नह बल्कि आर्यावर्त के इतिहास मे एक महत्तवपूर्ण घटना है। वीरसेन के
सिक्के उत्तरी भारत मे लगभग सारे उत्तरप्रदेश व पंजाब मे पाये गए है। मथुरा से
अधिक मात्रा मे सिक्के मिले है। वीरसेन ने मथुरा पर अपना अधिकार जमाकर आर्यावर्त के
दोआब क्षेत्र मे अपना शासन किया और लगभग 40 वर्षो तक यहां शासन किया। (संदर्भ
ग्रंथ- क्षत्रिय राजवंश पृष्ठ 342, लेखक डाक्टर रघुनाथचंद्र व डाक्टर प्रदीपकुमार राव)।
ऐसा प्रतीत होता है की वीरसेन ने पद्मावती के साथ साथ मथुरा को भी वासूदेव
कुषाण से प्राप्त कर लिया था। वीरसेन के सिक्के अधिकांशतः मथुरा मे मिले है।
किन्तु पद्मावती मे भी इनके सिक्के मिले है इससे स्पष्ट होता है की। इससे स्पष्ट
होता है की मथुरा व पदमावती दोनों पर
वीरसेन का शासन रहा होगा। वीरसेन के सिक्को पर बाम नंदी, त्रिशूल, परशु आदि चिन्ह मिले है, और वीरसेन का भी शिलालेख भी मिला है। जिस पर अंकित वृक्ष सिक्को पर मिले
वृक्ष से मेल कहता है। चूंकि वीरसेन के सबसे जादा सिक्के मथुरा मे मिले है अतः
स्पष्ट है की वह मथुरा का शासक रहा है। किन्तु
वीरसेन के सिक्क पद्मवाती और कांतिपुरी मे भी मिले है अतः स्पष्ट है की
वीरसेन के राज्य का विस्तार इन दोनों राजधानियों तक रहा होगा। वीरसेन का
शिलालेख जानखाट नामक ग्राम मे भी मिले है।
उस पर स्वामीन वीरसेन संवत्सरे10।3(13) लिखा है (संदर्भ ग्रंथ-पद्मावती पृष्ठ 26 लेखक डाकटर मोहनलाल वर्मा)। उपरोक्त
उल्लेख से लगता है की महाराजा वीरसेन अपने पत्रिक राजधानी कान्तिपुरी मे शासन करते
हुये मथुरा और पद्मवाती से कुषाणो को पराजित कर मथुरा को अपनी राजधानी बनाया
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