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भारशिव क्षत्रिय राजपूतो का भर/राजभर राजपूत में विघटित होने की यात्रा एक नज़र में

 भारशिव क्षत्रिय राजपूतो का भर/राजभर राजपूत में विघटित होने की यात्रा एक नज़र में


पूर्वांचल के कई राजभर क्षत्रियो ने अपना शीर्षक भारद्वाज लिखा ताकि वे अपने परिवार से जुड़े रहे और सामान्य श्रेणी/सवर्ण में बने रहे।भारशिव राजपूत राजाओं के बीच सबसे शक्तिशाली राजा उन दिनों भारशिव राजपूत वंश में दिखाई दिया था।  जिनमे सबसे पहले थे श्री वीरसेन जी महाराज जिन्होंने पूर्वांचल और बुंदेलखंड को कुषाण के निर्दयी पंजो से मुक्ति दिलाई थी । दूसरे थे श्रावस्ती/अवध साम्राज्य के भारशिव राजपूत राजा श्री सुहेलदेवजी महाराज प्रथम जो महाराजा बिहारीमल देवजी एवं महारानी जय लक्ष्मीजी के पुत्र थे।  इनका जन्म बसंत पंचमी के पावन अवसर पर 18 फरवरी 1009 ईस्वी में हुआ था। इनका शासनकाल 1027 ईस्वी से लेकर 1077 ईस्वी तक चला। अपने शासनकाल में उन्होंने 10 जून 1034 ईस्वी में इस्लामिक आक्रान्ता  सालार मसूद गाजी जो कि महमूद गजनी का भतीजा था को चित्तौर के युद्धभूमि पर जो बहराइच उत्तर प्रदेश में है मार गिराया। मसूद गाजी का मुख्य उद्देश्य अयोध्या , काशी/वाराणसी,मथुरा/छोटा सोमनाथ के हिन्दू मंदिरों को नष्ट करना,भारत मे इस्लाम का विस्तार कर इस्लामिक जिहाद के अनुसार लूटपाट करना था। बहराइच के युद्ध को दूसरा महाभारत कहा जाता है जिसमे गजनी के इस्लामी राज्य के हर घर हर परिवार से कम से कम एक इस्लामिक सैनिक मारे गए थे। मसूद गाजी की सेना में लगभग 3.5 लाख इस्लामिक सैनिक थे। मसूद गाजी के हमले के दौरान श्रावस्ती के भारशिव राजपूत राजा श्री सुहेलदेव जी महाराज उस समय भारत की 24 राज्यो की सेनाओं का नेतृत्व किया। बहराइच के युद्ध मे विश्व युद्ध के इतिहास में पहली बार मसूद गाजी द्वारा भारतीय युद्ध सलाहकार पंडित नंद महार के कहने पर युद्धभूमि में गाय प्रतिरोधों का प्रयोग किया जिसे एक पासी सूबेदार द्वारा बनाये गए सुअर की सेना के उपयोग से विफल कर दिया गया था। महाराजा सुहेलदेव प्रथम ने संयुक्त और बृहद भारत के लिए बिना किसी भेदभाव के ऊँची नीची सभी जातियों समूह को समान अवसर प्रदान कर एक साथ ले आये। महाभारत के युद्ध के बाद यह पहला ऐसा मौका था जब किसी क्षत्रिय राजा ने कई अवसरों पर अपने साथ छोटे शहरों, उत्तर मध्य के प्रांत के क्षेत्रों के राजाओ को  साथ करके विदेशी आक्रमणकारियों/इस्लामिक आक्रान्ता से युद्ध किया।। दुर्भाग्यपूर्ण उन दिनों ऐसे भी कई अवसर आये जब हमारे अपने राजपूत राजा तथा दूसरे समुदाय के राजा भी  भारशिव क्षत्रिय राजाओ के खिलाफ जाकर उन विदेशी आक्रमणकारियों/इस्लामिक आक्रांताओ से हाथ मिलाया। सन 1077 ईस्वी में श्रावस्ती के महाराजा श्री सुहेलदेव प्रथम का लंबे समय से चलती आ रही गंभीर बीमरी के कारण निधन हो गया। श्रावस्ती के महाराजा सुहेलदेव प्रथम की मृत्यु के बाद भारशिव वंश के  पतन (1093 ईस्वी के बाद ) कि शुरूआत हो गयी। क्योकि उनके बाद जो भी राजा आये उनकी अपने पड़ोसी राज्यो से बनती नही थी  कई राजाओ का मंत्र हो गया था कि खाओ पियो और खुश रहो। अपने  अड़ियल रवैय्ये के कारण ये सब एक साथ मिल जुल कर नही राह सके। हालांकि भारशिव क्षत्रियो  के वंश के पतन काल के दौरान जो तीसरे सबसे शक्तिशाली  भारशिव क्षत्रिय राजा थे उनका नाम श्री दलदेव जी महाराज(1402-1440 ईस्वी) थे। जिन्होंने  श्रावस्ती नरेश श्री सुहेलदेवजी महाराज के बाद एक बार पुनः सभी छोटे बड़े राज्य के राजाओ को एक साथ  एक मंच पर लाने का प्रयास किया ताकि एकत्रित होकर इस्लामिक आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध कर सके किन्तु इस्लामिक आक्रमण कारियो ने एक साथ उन पर हमला कर उनकी हत्या कर दी ।



चौथे शक्तिशाली भारशिव राजपूत राजा श्री सुहेलदेवजी महाराजा द्वितीय (1527-1576 ईस्वी) थे जो रायबरेली/डलमऊ साम्राज्य के राजा थे जो महाराज श्री डलदेव जी के वंशज थे।  श्री डलदेव जी महाराज 16वी शताब्दी के दौरान (लगभग 1527 ईस्वी जब मुग़ल शासक अकबर का साम्राज्य प्रभावी था  भ्रम और गलतफहमी से बचने के लिए हमने उन्हें रायबरेली/डलमऊ साम्राज्य के महाराजा श्री सुहेलदेव द्वितीय के रूप में सम्बोधित किया।। वह भी अपने भारशिव क्षत्रिय पूर्वजों की तरह वीर थे। उन्होंने जनवरी 1576 ईस्वी में अकबर द्वारा भेजे गए आत्मसर्मपण प्रस्ताव को  कर ठुकरा दिया  और उसका जवाब अकबर को दिया कि वे युद्धभूमि में अपने राज्य , अपनी जनता और सनातन धर्म के लिए अपनी और अपने वीर सैनिको को बलिदान कर देंगे  अपने महावीर  भारशिव राजपूत वंशजो कि तरह जिन्होंने भूतकाल में कभी भी किसी  इस्लामिक आक्रान्ता/इस्लामिक शासक/विदेशी आक्रमणकारियों के खिलाफ घुटने नही टेके । भारशिव राजपूत राजा श्री सुहेलदेवजी महाराज द्वितीय द्वारा ठुकराये गए आत्मसमर्पण के प्रस्ताव से नाराज होकर  शासक अकबर ने मार्च अंत 1576 ईस्वी में (हल्दीघाटी के युद्ध से पहले जून 1576 ईस्वी) रायबरेली/डलमऊ साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया।। रायबरेली के युद्ध मे मुग़ल की विशाल सेना के विरुद्ध सुहेलदेवजी महाराज ने अपने वीर सैनिको के साथ बहुत वीरता पूर्वक युद्ध किया  और युद्ध करते करते खुद को  देश के लिए बलिदान कर दिया किन्तु मुगल राजा अकबर के आगे समर्पण नही किया।

रायबरेली के युद्ध के दौरान महाराजा सुहेलदेवजी अपनी सेना के साथ मारे गए और रायबरेली साम्राज्य को मुगल सेना ने पूरी तरह नष्ट कर दिया। रायबरेली/डलमऊ राज्य के लगभग 106000 भारशिव राजपूत योद्धाओं के नरसंहार के बाद  अकबर के इस्लामिक/मुगल राज्य में शामिल कर लिया गया था। युद्ध के बाद जो राजपूत बच्चे,औरते और बूढ़े लोग बचे थे उनपर दबाव डाला गया कि या तो वे रायबरेली/डलमऊ साम्राज्य को छोड़ कर चले जाएं या फिर अपने आप को इस्लाम मे शामिल कर ले।  इस प्रकार जो बचे खुचे राजपूत थे वे किसी सुरक्षित स्थान पर स्थानांतरित हो गए ताकि वे खुद को और अपने धर्म बचा सके। उनमे से कई लोग पश्चिम और दक्षिण के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानांतरित हो गए  क्योकि वहाँ पर उनकी बचे रहने की संभावनाएं ज़्यादा थी  ये क्षेत्र थे झांसी,ललितपुर, ग्वालियर, मिर्ज़ापुर, संकरगढ़, सतना,कटनी,जबलपुर और बिदर्भ के कई भागों में।  समय के साथ साथ वे सब  मिलजुल करअपने छुपने वाले स्थान पर ही निवास करने लगे। और वही से मुग़लो, इस्लामिक आक्रान्ता/शासक पर अपने सामूहिक गुप्त हमलो को जारी रखा।। उन भारशिव राजपूतो ने अपने शीर्षक    वघेल,सुहेल,देव,चंदेल,चन्दोल, चौहान,राठौर,परमार,गौंड़ परिहार,रघुवंशी,सूर्यवंशी इत्यादि  मुगल/इस्लामिक प्रशासन का ध्यान भटकाने के लिए लिखने और बताने लगे। और अपने बदली पहचान के साथ वे विभिन वंशो के राजपूत बने रहे।

रायबरेली के युद्ध के बाद उनमे से कइयों ने राजपूतो के देव वंश/नागवंश को छोड़ दिया जो कि  उत्तर-पूर्वी स्थानों की ओर स्थानांतरित हो गए थे जैसे उत्तर प्रदेश का  पूर्वांचल और बिहार से सटा क्षेत्र। इन लोगो पर मुगलो ने बहुत अत्याचार किया था यहाँ तक कि इनको मुगलो ने अपने घरों में नौकरो की तरह इस्तेमाल किया उनका शोषण किया  और उन्हें "भर/राजभर" नाम दिया जिसके मुगल समाज मे अर्थ है पानी भरने वाला।मुगल प्रशासन द्वारा मुगलो के सामने समर्पण नही करने के लिए रायबरेली/डलमऊ के उन परिवर्तित भारशिव राजपूतो के खिलाफ  क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया गया था। मुगल प्रशासन इन भारशिव राजपूतो की युद्ध करने की क्षमता, हिंदुत्व में पूर्ण आस्था रखने वाला और अपनी भूमि पर किसी विदेशी को ये आने नही देने की बातो से डरा हुआ था। यही एकमात्र कारण था कि जो भारशिव राजपूत भविष्य मे फिर कभी समाज मे अपना सिर ऊँचा नही कर पाए। भारशिव क्षत्रिय सुस्थापित समूह जो भारत कई सालों से पूर्वांचल /अन्य मुगल क्षेत्र उनकी भूमि/संपत्ति इनसे सटी थी जो मुगल प्रशासन द्वारा बलपूर्वक छीन ली गयी। और इन्हें ये प्रस्ताव दिया गया कि या तो वे इस्लाम स्वीकार करे या फिर मुगल क्षेत्र से चले जाएं।

यही नही अकबर के मुगल प्रशासन ने कई उपयुक्त व्यवस्था कर इन भारशिव क्षत्रिय/राजपूतो कबीले के ऐतिहासिक  दस्तावेजो को शुरुआत से नष्ट किया था।। अकबर ने अपने जीवनकाल में कई बार अपनी निगरानी में उन दस्तावेजो को नष्ट करवाया था।। उसने इन वीर भारशिव क्षत्रिय/राजपूत योद्धाओं की बहादुरी और यशगाथाओ को नष्ट किया तथा इसने आधिकारिक तौर पर इन परिवर्तित भर/राजभर समाज को अन्य राजपूत समुदाय से अलग कर दिया।।

अकबर के शासनकाल के दौरान राजपूतो के केवल ऐसे दो ही कबिले थे जिन्होंने अकबर के सामने समर्पण नही किया था। जिनमे से पहले थे रायबरेली/डलमऊ साम्राज्य के भारशिव/नागवंशी/देववंशी राजपूत राजा श्री सुहेलदेवजी महाराज द्वितीय तथा दूसरे थे मेवाड़ के महाराजा श्री राणा प्रताप जी जो कि सिसोदिया राजपूत के काबिल से थे उनपर भी  मुगल अकबर द्वारा रायबरेली के युद्ध(15 जून 1576 ईस्वी)  के बाद हल्दी घाटी में युद्ध हुआ और अकबर विजयी हुए । फिर भी महाराणा प्रताप ने अपने मेवाड़ के राजपूत योद्धाओं के साथ मुगल सेना की विरुद्ध बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन अपने निर्वासन काल के दौरान कई विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के बाद भी बादशाह अकबर के सामने आत्मसमर्पण नही किया।।

इस्लामिक शासको से ब्रिटिश प्रशासन द्वारा भारत को अपने कब्जे में लेने पर ब्रिटिश भारतीय प्रशासन के खिलाफ उच्च स्तर की आक्रामता का प्रदर्शन भी उस उग्र भारशिव राजपूत समुदाय द्वारा अपने छिपने के स्थान से जारी रहा। विदेशी शासकों से असहिष्णु होना जो ब्रिटिश भारतीय प्रशासन द्वारा अनियंत्रित रहा। यही नही अंतिम इस्लामिक शासक ने ब्रिटिश भारतीय प्रशासन को इस समुदाय के विदेशी विरोधी योग्यता के बारे में गलत जानकारी दी जो तब भर /राजभर कहलाते थे।

इसलिए ब्रिटिश भारतीय प्रशासन  1868 के दौरान भारतीय पुलिस सेवा और IPS / CRPC को लागू करने के लिए मजबूर हो गयी और आखिरकार 1871 के दौरान उस समुदाय को भारत की आपराधिक जातियों और जनजातियों की सूची में लाया गया।


1924 ई के दौरान ब्रिटिश संसद के निर्देश पर किए गए भारतीय जनसंख्या जातियों / समूहों / जनजातियों के जनसांख्यिकी सर्वेक्षण के दौरान, यह पता चला था कि यूपी के पूर्वांचल में रहने वाली एक जाति और बिहार राज्य के कई निकटवर्ती क्षेत्रों में निवास करती है जिन्हें "राजभर"/भर कहा जाता है। इनके   पास अपने समुदाय के अतीत का कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड ही नहीं था।

हालाँकि इस समुदाय को पहले ही स्थानीय ब्रिटिश प्रशासन ने विदेशी शासकों के विरोधी के रूप में अधिसूचित किया था और स्थानीय पुलिस की सबसे वांछित सूची में रखा गया था। हालाँकि भारतीय ब्रिटिश प्रशासन द्वारा दी गई स्थानीय शक्तियों में मुगल / मुस्लिम सरदार / सूबेदार / मालगुजारीदारों में से कई ने संबंधित समुदाय के बारे में स्थानीय भारतीय ब्रिटिश प्रशासन को गुमराह किया था 

हालांकि ब्रिटिश संसद 1924 में भारत से भेजी गई इस जनगणना सूची से संतुष्ट नही थी  साथ ही ब्रिटिश संसद को इस समुदाय से भारत की आपराधिक जातियों और जनजातियों की सूची में उसका नाम शामिल करने के खिलाफ उठाई गई आपत्तियों के उच्च स्तर के कारण एक जांच समिति गठित करने के मजबूर किया गया था, और यह मांग की कि अपने वीर भारशिव राजपूत योद्धाओं पूर्वजो की वास्तविक स्थिति का पता लगाने की जो सर्वणों के अत्यधिक विकसित सभ्य शासक वर्ग से थे।

इसलिए ब्रिटिश संसद ने जनवरी, 1929 के दौरान  भर / राजभर समुदाय  के मूल सामुदायिक रिकॉर्ड / स्थिति  अधिनियम का पता लगाने के लिए अपने स्वयं के ब्रिटिश सामाजिक वैज्ञानिकों, सामाजिक शोधकर्ताओं और ऐतिहासिक विशेषज्ञों की एक जांच टीम का गठन किया था और उसी टीम को भारत सामाजिक मामले के अध्ययन के लिए प्रतिनियुक्त किया था।     ब्रिटिश टीम ने कई आधिकारिक सामुदायिक रिकॉर्डों का उल्लेख करके, कई स्मारकों, संरचनाओं, इमारतों और सांस्कृतिक और सामाजिक स्थानों पर जाकर और स्थानीय इतिहासकारों और प्रवासियों द्वारा कई बयानों / सबूतों का रिकॉर्ड करके एक ही समुदाय पर सर्वेक्षण / केस अध्ययन किया था अंतत: दिसम्बर, 1931 के दौरान ब्रिटिश संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें कहा गया कि भर / राजभर नामक समुदाय वर्तमान में मध्य भारत, उत्तर और उत्तर पूर्व भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहा है, यह उन  भारशिव राजपूत राजवीर योद्धा समुदाय का सच्चा वंशज है, जो था सवर्णों का अत्यधिक सभ्य शासक वर्ग इसलिए इस भर / राजभर समुदाय की वर्तमान स्थिति को बनाए रखा जाना चाहिए क्योंकि इसके पूर्वजों का अर्थ है राजपूत समुदाय / सवर्ण / फॉरवर्ड ब्लॉक (वर्तमान की सामान्य श्रेणी) और तुरंत प्रभाव से इसका नाम भारत की आपराधिक जाति और  जनजातियों की सूची  से समाप्त / हटा दिया जाए और उन्हें सुविधा प्रदान करे लेकिन दुर्भाग्य से उन दिनों भारत मे बढ़ती अशांति के कारण ब्रिटिश संसद में लंबित रखा गया था।

भारतीय इतिहासकारों और सामाजिक साहित्य के मौखिक परामर्श के बाद भारत का ऐतिहासिक अंधकार काल समुदाय के नस्लीय लक्षणों का विश्लेषण करता है। 16 वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान ऐसा समय आया था जब पूर्वांचल में उन राजपूतों को जो बादशाह अकबर द्वारा क्रूर दमन में रायबरेली / डलमऊ लड़ाई के बाद (मार्च 1576 ई। अंत) । “राजभर” / “भर” नाम दिया गया था,अधिकांश यूरोपीय इतिहासकारों ने लिखा था कि भारत के उत्तर मध्य प्रांत के "राजभर" / "भर" बेहद अनोखी और प्रशासनिक कौशल के उच्च क्षमता से लैस अत्यधिक सभ्य और ब्रावेस्ट क्षत्रिय / राजपूत वंशों के वंशज  थे।उन्हें "फॉरवर्ड" समूह / सवराना / जाति की सामान्य श्रेणी से नीचे वर्गीकृत करने की आवश्यकता नहीं है- इसका कई  भारतीय इतिहासकारों द्वारा पुष्टि कर समर्थन प्रदान किया गया।[7:59 PM, 8/16/2020] Kuldeep Rai: इस समुदाय की वर्तमान सामाजिक और आर्थिक स्थिति पूर्वांचल के उ.प्र में कुछ ख़ास  नहीं है क्योंकि वे मुगल प्रशासनों द्वारा सामाजिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह से दबा दिए गए थे और हमारे स्वयं के फॉरवर्ड जाति समूहों द्वारा  दबा दिये गए थे ।व्यक्तियों को करने के लिए कुछ ख़ास नहीं  था। समय के अनुसार उनमें से कई ने अपनी आजीविका के लिए अपनी कृषि गतिविधियाँ / संबंधित खेती की स्थापना की और बाद में सर्वेक्षणों से पता चलता है कि उनमें से लगभग 70% परिवार किसान / जमींदार / पेशेवर / व्यवसायी और शेष 30% के रूप में खेती करते रहे हैं। कृषि / कृषि मजदूर / औद्योगिक दैनिक वेतन अर्जन के रूप में काम करने वाले परिवार।इस समुदाय ने 1857 ई के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ कई स्थानों पर झाँसी की महारानी  लक्ष्मीभाई, तात्या टोपे और स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य नेताओं  के साथ बहुत बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी।तथा १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी ।उनमें से कई भारत की क्रांतिकारी पार्टी में थे (श्री चंद्र शेखर आज़ादजी, भगत सिंहजी, राजगुरु, आदि के साथ) और यहां तक ​​कि भारत की स्वतंत्रता के लिए नेताजी श्री सुभाष चंद्र बोस जी की "आज़ाद हिंद सेना" में शामिल हो गए। हालाँकि उनमें से कई भारतीय स्वतंत्रता के महान कारण के लिए महात्मा गांधी जी के साथ थे।पूर्व में भी इस समुदाय के कई सामुदायिक नेताओं ने कई स्थानों पर "राजभर क्षत्रिय समाज" की स्थापना करके अपनी पुश्तैनी राजपुताना गरिमा को बहाल करने की पूरी कोशिश की थी, भारतीय स्वतंत्रता के बाद और बाद में सामुदायिक एकता के लिए जोर दिया, लेकिन बहुत अधिक  बाधाओं / शैक्षिक बाधाओं / अभाव और विचारों की भिन्नता के कारण ऐसा नहीं कर पाए।प्रमुख सामुदायिक सुधारकों में पचोटार, गाजीपुर के श्री सुखदेवजी, यू.पी. (1931 से 1938 तक राजपुताना विषय के साथ सक्रिय भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान), फैजाबाद के अयोध्या के संत बाबा श्री बोलनाथ बाबा तपसी जी, गाजीपुर के श्री रामसूरत राय, यू.पी. (पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडिपेंडेंस) और महमूदपुर, सादात, गाजीपुर, यूपी (1962 से 1975 + मुंबई में स्थानांतरित) के दिवंगत श्री पारसनाथ सिंह भारद्वाज आदि को संबंधित समुदाय के सदस्यों के बीच राजपुताना के प्रचार प्रसार के महान आभार के साथ याद किया जाना चाहिए।उन्होंने सोसाइटी में बहुत प्रचारित किया था कि उनके पूर्वज सबसे बड़े भारशिव  क्षत्रिय / भारशिव राजपूत थे और समुदाय को "राजपूतों" का दर्जा सामाजिक और आधिकारिक तौर पर भारत की केंद्र सरकार द्वारा दिया जाना चाहिए ।/ राज्यों।

[9:03 PM, 8/16/2020] Kuldeep Rai: वर्तमान समुदाय के राजनीतिक नेताओं में खतरनाक रूप से वृद्धि हुई है, लेकिन समुदाय को क्षत्रिय / राजपूतों के रूप में राज्य और केंद्र प्रशासनों / सरकारों के लिए प्रोजेक्ट करने का साहस नहीं हो सकता है, इसके विपरीत वे ओबीसी / एसटी /एससी जैसी निम्न श्रेणियों के जाति-आधारित आरक्षण को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं अपनी जाति के वोट बैंक के बदले में। पूर्वांचल में लगभग 18% वोट शेयर रखते हैं और निर्दोष समुदाय के मतदाताओं को अपने स्वयं के राजनीतिक करियर / व्यक्तिगत लाभ के लिए झूठा फंसा रहे हैं।समुदाय के सम्मानित राजनेताओं से अनुरोध किया जा रहा है कि ईश्वर के लिए कृपया   निचली जाति-श्रेणियों में रखने के लिए प्रशासन से मांग करने के बजाय बहादुर भारशिव  क्षत्रिय / राजपूत समुदाय को  सामान्य जाति समूहों को मान्यता देने की मांग करे ।यदि आप आसन्न छोटे लाभों के लिए समुदाय को नीचा दिखाते हैं तो आपकी युवा पीढ़ियां आपको इस भूल के लिए कभी माफ नहीं करेंगी। हमने समुदाय के विधायकों और सांसदों में से एक भी व्यक्ति को यह कहते हुए नहीं देखा है कि यह  समुदाय भारशिव क्षत्रिय / राजपूत समुदाय के रूप में था, है और रहेगा। लोगों / समुदाय के प्रतिनिधि होने के नाते निश्चित रूप से ये राजनेता समुदाय के वोट बैंक को खोना नहीं चाहते हैं।अपने राजनीतिक मतभेदों के अलावा सभी समुदाय के राजनेताओं को जाति आधारित आरक्षण को अस्वीकार करने वाले समुदाय की पवित्र सेवा के लिए एक साथ होना चाहिए, हाँ, वे आर्थिक स्थिति आधारित आरक्षण (ईडब्ल्यूएस) के लिए प्रशासनों से मांग कर सकते हैं।वास्तव में आरक्षण समुदाय के पुनरुत्थान के लिए अधिक लंबे समय तक प्रभाव / परिणाम नहीं देने वाले हैं, इससे सदस्यों को आलस्य की ओर जाने में आसानी होती है।भारशिव क्षत्रिय / राजपूत समुदाय के सबसे बहादुर समुदाय में सरकारी प्रशासनों की सहायता के बिना नस्लीय शक्तियों / लक्षणों के साथ लक्ष्य प्राप्त करने के लिए स्वाभिमान / व्यक्तिगत सम्मान की शानदार मात्रा थी।पुनरुद्धार के लिए, समुदाय के पास सरकार के उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा अधिकृत अपने श्रव्य समुदाय ट्रस्टों को बनाने / स्थापित करने के लिए  अपनी आर्थिक शक्ति होनी चाहिए।समुदाय के सभी सक्षम सदस्यों से किफायती योगदान और उसी का उपयोग समुदाय और उसके जरूरतमंद सदस्यों के उत्थान / विकास के लिए किया जाना चाहिये ।सिहोरा, जबलपुर, मप्र के आचार्य श्री शिवप्रसाद सिंह जी द्वारा प्रदान की गई सराहनीय विशेषज्ञ सामुदायिक सेवाओं को जहां "राजभर क्षत्रिय समाज" / "भारशिव  क्षत्रिय समाज" के क्षेत्र में स्थापित करने और फैलाने के लिए समुदाय के विकास के महान कारण के लिए जहाँ भी लाभकारी ठहराया जाए, लागू किया जाना चाहिए। नागवंशी क्षत्रिय समाज / अग्निवंशी क्षत्रिय समाज / भरतवंशी क्षत्रिय समाज / देव- वंशी क्षत्रिय समाज / राजवंशी क्षत्रिय समाज /।यहां तक ​​कि जातिगत शीर्षक "राजभर" / "भर" को मुगल सम्राट अकबर द्वारा मुगलों के आगे  आत्मसमर्पण नहीं करने और "क्षत्रिय" / "राजपूत" के रूप में जाति को फिर से स्वीकार करने के लिए मृत्युदंड के रूप में पुरस्कृत किया गया है।जो भी वैध कारण बताए गए हैं उनके प्रमाण यहां दर्ज नहीं किए जा रहे हैं और बहुत ही पछतावा हो रहा है।यह संबंधित समुदाय के पाठकों के साथ-साथ सामाजिक साहित्यकारों के लिए संक्षिप्त आंख खोलने वाला है।

हम पूरी तरह से आशावादी हैं और पूरी तरह से विश्वास करते हैं कि सम्बंधित  समुदाय निश्चित रूप से बहादुर  भारशिव क्षत्रिय / राजपूत वंशों की अपनी पैतृक गरिमा को प्राप्त करेगा और जल्द ही अन्य राजपूत समुदायों की मुख्य धारा के साथ सामाजिक राजपुताना स्थिति  में सम्‍मिलित होगा ।भविष्य में चमकदार सफलताओं के लिए सभी शुभकामनाएं। संबंधित समुदाय की नई पीढ़ी के सभी युवाओं से अपील है कि वे सभी स्तरों पर शुरू होने वाले सभी विषयों पर क्षत्रितवा / राजपूताना की क्रांतियों / जनक्रांति का निर्माण करने वाली पवित्र सामुदायिक सेवाओं के लिए गाँव और छोटे शहर तालुका / तहसील, परिदृश्य, राज्य और राष्ट्र के लिएआगे आएं। । जय भवानी और जय राजपुताना

[9:04 PM, 8/16/2020] Kuldeep Rai: मुगल प्रशासन द्वारा मुगलो के सामने समर्पण नही करने के लिए रायबरेली/डलमऊ के उन परिवर्तित भारशिव राजपूतो के खिलाफ  क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया गया था। मुगल प्रशासन इन भारशिव राजपूतो की युद्ध करने की क्षमता, हिंदुत्व में पूर्ण आस्था रखने वाला और अपनी भूमि पर किसी विदेशी को ये आने नही देने की बातो से डरा हुआ था। यही एकमात्र कारण था कि जो भारशिव राजपूत भविष्य मे फिर कभी समाज मे अपना सिर ऊँचा नही कर पाए। भारशिव क्षत्रिय सुस्थापित समूह जो भारत कई सालों से पूर्वांचल /अन्य मुगल क्षेत्र उनकी भूमि/संपत्ति इनसे सटी थी जो मुगल प्रशासन द्वारा बलपूर्वक छीन ली गयी। और इन्हें ये प्रस्ताव दिया गया कि या तो वे इस्लाम स्वीकार करे या फिर मुगल क्षेत्र से चले जाएं।

यही नही अकबर के मुगल प्रशासन ने कई उपयुक्त व्यवस्था कर इन भारशिव क्षत्रिय/राजपूतो कबीले के ऐतिहासिक  दस्तावेजो को शुरुआत से नष्ट किया था।। अकबर ने अपने जीवनकाल में कई बार अपनी निगरानी में उन दस्तावेजो को नष्ट करवाया था।। उसने इन वीर भारशिव क्षत्रिय/राजपूत योद्धाओं की बहादुरी और यशगाथाओ को नष्ट किया तथा इसने आधिकारिक तौर पर इन परिवर्तित भर/राजभर समाज को अन्य राजपूत समुदाय से अलग कर दिया।।

अकबर के शासनकाल के दौरान राजपूतो के केवल ऐसे दो ही कबिले थे जिन्होंने अकबर के सामने समर्पण नही किया था। जिनमे से पहले थे रायबरेली/डलमऊ साम्राज्य के भारशिव/नागवंशी/देववंशी राजपूत राजा श्री सुहेलदेवजी महाराज द्वितीय तथा दूसरे थे मेवाड़ के महाराजा श्री राणा प्रताप जी जो कि सिसोदिया राजपूत के काबिल से थे उनपर भी  मुगल अकबर द्वारा रायबरेली के युद्ध(15 जून 1576 ईस्वी)  के बाद हल्दी घाटी में युद्ध हुआ और अकबर विजयी हुए । फिर भी महाराणा प्रताप ने अपने मेवाड़ के राजपूत योद्धाओं के साथ मुगल सेना की विरुद्ध बहुत बहादुरी से लड़े लेकिन अपने निर्वासन काल के दौरान कई विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के बाद भी बादशाह अकबर के सामने आत्मसमर्पण नही किया।।

इस्लामिक शासको से ब्रिटिश प्रशासन द्वारा भारत को अपने कब्जे में लेने पर ब्रिटिश भारतीय प्रशासन के खिलाफ उच्च स्तर की आक्रामता का प्रदर्शन भी उस उग्र भारशिव राजपूत समुदाय द्वारा अपने छिपने के स्थान से जारी रहा। विदेशी शासकों से असहिष्णु होना जो ब्रिटिश भारतीय प्रशासन द्वारा अनियंत्रित रहा। यही नही अंतिम इस्लामिक शासक ने ब्रिटिश भारतीय प्रशासन को इस समुदाय के विदेशी विरोधी योग्यता के बारे में गलत जानकारी दी जो तब भर /राजभर कहलाते थे।

इसलिए ब्रिटिश भारतीय प्रशासन  1868 के दौरान भारतीय पुलिस सेवा और IPS / CRPC को लागू करने के लिए मजबूर हो गयी और आखिरकार 1871 के दौरान उस समुदाय को भारत की आपराधिक जातियों और जनजातियों की सूची में लाया गया।


1924 ई के दौरान ब्रिटिश संसद के निर्देश पर किए गए भारतीय जनसंख्या जातियों / समूहों / जनजातियों के जनसांख्यिकी सर्वेक्षण के दौरान, यह पता चला था कि यूपी के पूर्वांचल में रहने वाली एक जाति और बिहार राज्य के कई निकटवर्ती क्षेत्रों में निवास करती है जिन्हें "राजभर"/भर कहा जाता है। इनके   पास अपने समुदाय के अतीत का कोई ऐतिहासिक रिकॉर्ड ही नहीं था।

हालाँकि इस समुदाय को पहले ही स्थानीय ब्रिटिश प्रशासन ने विदेशी शासकों के विरोधी के रूप में अधिसूचित किया था और स्थानीय पुलिस की सबसे वांछित सूची में रखा गया था। हालाँकि भारतीय ब्रिटिश प्रशासन द्वारा दी गई स्थानीय शक्तियों में मुगल / मुस्लिम सरदार / सूबेदार / मालगुजारीदारों में से कई ने संबंधित समुदाय के बारे में स्थानीय भारतीय ब्रिटिश प्रशासन को गुमराह किया था 

हालांकि ब्रिटिश संसद 1924 में भारत से भेजी गई इस जनगणना सूची से संतुष्ट नही थी  साथ ही ब्रिटिश संसद को इस समुदाय से भारत की आपराधिक जातियों और जनजातियों की सूची में उसका नाम शामिल करने के खिलाफ उठाई गई आपत्तियों के उच्च स्तर के कारण एक जांच समिति गठित करने के मजबूर किया गया था, और यह मांग की कि अपने वीर भारशिव राजपूत योद्धाओं पूर्वजो की वास्तविक स्थिति का पता लगाने की जो सर्वणों के अत्यधिक विकसित सभ्य शासक वर्ग से थे।

इसलिए ब्रिटिश संसद ने जनवरी, 1929 के दौरान  भर / राजभर समुदाय  के मूल सामुदायिक रिकॉर्ड / स्थिति  अधिनियम का पता लगाने के लिए अपने स्वयं के ब्रिटिश सामाजिक वैज्ञानिकों, सामाजिक शोधकर्ताओं और ऐतिहासिक विशेषज्ञों की एक जांच टीम का गठन किया था और उसी टीम को भारत सामाजिक मामले के अध्ययन के लिए प्रतिनियुक्त किया था।     ब्रिटिश टीम ने कई आधिकारिक सामुदायिक रिकॉर्डों का उल्लेख करके, कई स्मारकों, संरचनाओं, इमारतों और सांस्कृतिक और सामाजिक स्थानों पर जाकर और स्थानीय इतिहासकारों और प्रवासियों द्वारा कई बयानों / सबूतों का रिकॉर्ड करके एक ही समुदाय पर सर्वेक्षण / केस अध्ययन किया था अंतत: दिसम्बर, 1931 के दौरान ब्रिटिश संसद को अपनी रिपोर्ट सौंपी, जिसमें कहा गया कि भर / राजभर नामक समुदाय वर्तमान में मध्य भारत, उत्तर और उत्तर पूर्व भारत के विभिन्न हिस्सों में रह रहा है, यह उन  भारशिव राजपूत राजवीर योद्धा समुदाय का सच्चा वंशज है, जो था सवर्णों का अत्यधिक सभ्य शासक वर्ग इसलिए इस भर / राजभर समुदाय की वर्तमान स्थिति को बनाए रखा जाना चाहिए क्योंकि इसके पूर्वजों का अर्थ है राजपूत समुदाय / सवर्ण / फॉरवर्ड ब्लॉक (वर्तमान की सामान्य श्रेणी) और तुरंत प्रभाव से इसका नाम भारत की आपराधिक जाति और  जनजातियों की सूची  से समाप्त / हटा दिया जाए और उन्हें सुविधा प्रदान करे लेकिन दुर्भाग्य से उन दिनों भारत मे बढ़ती अशांति के कारण ब्रिटिश संसद में लंबित रखा गया था।

भारतीय इतिहासकारों और सामाजिक साहित्य के मौखिक परामर्श के बाद भारत का ऐतिहासिक अंधकार काल समुदाय के नस्लीय लक्षणों का विश्लेषण करता है। 16 वीं शताब्दी ईस्वी के दौरान ऐसा समय आया था जब पूर्वांचल में उन राजपूतों को जो बादशाह अकबर द्वारा क्रूर दमन में रायबरेली / डलमऊ लड़ाई के बाद (मार्च 1576 ई। अंत) । “राजभर” / “भर” नाम दिया गया था,अधिकांश यूरोपीय इतिहासकारों ने लिखा था कि भारत के उत्तर मध्य प्रांत के "राजभर" / "भर" बेहद अनोखी और प्रशासनिक कौशल के उच्च क्षमता से लैस अत्यधिक सभ्य और ब्रावेस्ट क्षत्रिय / राजपूत वंशों के वंशज  थे।उन्हें "फॉरवर्ड" समूह / सवराना / जाति की सामान्य श्रेणी से नीचे वर्गीकृत करने की आवश्यकता नहीं है- इसका कई  भारतीय इतिहासकारों द्वारा पुष्टि कर समर्थन प्रदान किया गया।


इस समुदाय की वर्तमान सामाजिक और आर्थिक स्थिति पूर्वांचल के उ.प्र में कुछ ख़ास  नहीं है क्योंकि वे मुगल प्रशासनों द्वारा सामाजिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह से दबा दिए गए थे और हमारे स्वयं के फॉरवर्ड जाति समूहों द्वारा  दबा दिये गए थे ।व्यक्तियों को करने के लिए कुछ ख़ास नहीं  था। समय के अनुसार उनमें से कई ने अपनी आजीविका के लिए अपनी कृषि गतिविधियाँ / संबंधित खेती की स्थापना की और बाद में सर्वेक्षणों से पता चलता है कि उनमें से लगभग 70% परिवार किसान / जमींदार / पेशेवर / व्यवसायी और शेष 30% के रूप में खेती करते रहे हैं। कृषि / कृषि मजदूर / औद्योगिक दैनिक वेतन अर्जन के रूप में काम करने वाले परिवार।इस समुदाय ने 1857 ई के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ कई स्थानों पर झाँसी की महारानी  लक्ष्मीभाई, तात्या टोपे और स्वतंत्रता आंदोलन के अन्य नेताओं  के साथ बहुत बहादुरी से लड़ाई लड़ी थी।तथा १९४२ में भारत छोड़ो आंदोलन में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी ।उनमें से कई भारत की क्रांतिकारी पार्टी में थे (श्री चंद्र शेखर आज़ादजी, भगत सिंहजी, राजगुरु, आदि के साथ) और यहां तक ​​कि भारत की स्वतंत्रता के लिए नेताजी श्री सुभाष चंद्र बोस जी की "आज़ाद हिंद सेना" में शामिल हो गए। हालाँकि उनमें से कई भारतीय स्वतंत्रता के महान कारण के लिए महात्मा गांधी जी के साथ थे।पूर्व में भी इस समुदाय के कई सामुदायिक नेताओं ने कई स्थानों पर "राजभर क्षत्रिय समाज" की स्थापना करके अपनी पुश्तैनी राजपुताना गरिमा को बहाल करने की पूरी कोशिश की थी, भारतीय स्वतंत्रता के बाद और बाद में सामुदायिक एकता के लिए जोर दिया, लेकिन बहुत अधिक  बाधाओं / शैक्षिक बाधाओं / अभाव और विचारों की भिन्नता के कारण ऐसा नहीं कर पाए।प्रमुख सामुदायिक सुधारकों में पचोटार, गाजीपुर के श्री सुखदेवजी, यू.पी. (1931 से 1938 तक राजपुताना विषय के साथ सक्रिय भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान), फैजाबाद के अयोध्या के संत बाबा श्री बोलनाथ बाबा तपसी जी, गाजीपुर के श्री रामसूरत राय, यू.पी. (पोस्ट इंडिपेंडेंस इंडिपेंडेंस) और महमूदपुर, सादात, गाजीपुर, यूपी (1962 से 1975 + मुंबई में स्थानांतरित) के दिवंगत श्री पारसनाथ सिंह भारद्वाज आदि को संबंधित समुदाय के सदस्यों के बीच राजपुताना के प्रचार प्रसार के महान आभार के साथ याद किया जाना चाहिए।उन्होंने सोसाइटी में बहुत प्रचारित किया था कि उनके पूर्वज सबसे बड़े भारशिव  क्षत्रिय / भारशिव राजपूत थे और समुदाय को "राजपूतों" का दर्जा सामाजिक और आधिकारिक तौर पर भारत की केंद्र सरकार द्वारा दिया जाना चाहिए ।/ राज्यों।


वर्तमान समुदाय के राजनीतिक नेताओं में खतरनाक रूप से वृद्धि हुई है, लेकिन समुदाय को क्षत्रिय / राजपूतों के रूप में राज्य और केंद्र प्रशासनों / सरकारों के लिए प्रोजेक्ट करने का साहस नहीं हो सकता है, इसके विपरीत वे ओबीसी / एसटी /एससी जैसी निम्न श्रेणियों के जाति-आधारित आरक्षण को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं अपनी जाति के वोट बैंक के बदले में। पूर्वांचल में लगभग 18% वोट शेयर रखते हैं और निर्दोष समुदाय के मतदाताओं को अपने स्वयं के राजनीतिक करियर / व्यक्तिगत लाभ के लिए झूठा फंसा रहे हैं।समुदाय के सम्मानित राजनेताओं से अनुरोध किया जा रहा है कि ईश्वर के लिए कृपया   निचली जाति-श्रेणियों में रखने के लिए प्रशासन से मांग करने के बजाय बहादुर भारशिव  क्षत्रिय / राजपूत समुदाय को  सामान्य जाति समूहों को मान्यता देने की मांग करे ।यदि आप आसन्न छोटे लाभों के लिए समुदाय को नीचा दिखाते हैं तो आपकी युवा पीढ़ियां आपको इस भूल के लिए कभी माफ नहीं करेंगी। हमने समुदाय के विधायकों और सांसदों में से एक भी व्यक्ति को यह कहते हुए नहीं देखा है कि यह  समुदाय भारशिव क्षत्रिय / राजपूत समुदाय के रूप में था, है और रहेगा। लोगों / समुदाय के प्रतिनिधि होने के नाते निश्चित रूप से ये राजनेता समुदाय के वोट बैंक को खोना नहीं चाहते हैं।अपने राजनीतिक मतभेदों के अलावा सभी समुदाय के राजनेताओं को जाति आधारित आरक्षण को अस्वीकार करने वाले समुदाय की पवित्र सेवा के लिए एक साथ होना चाहिए, हाँ, वे आर्थिक स्थिति आधारित आरक्षण (ईडब्ल्यूएस) के लिए प्रशासनों से मांग कर सकते हैं।वास्तव में आरक्षण समुदाय के पुनरुत्थान के लिए अधिक लंबे समय तक प्रभाव / परिणाम नहीं देने वाले हैं, इससे सदस्यों को आलस्य की ओर जाने में आसानी होती है।भारशिव क्षत्रिय / राजपूत समुदाय के सबसे बहादुर समुदाय में सरकारी प्रशासनों की सहायता के बिना नस्लीय शक्तियों / लक्षणों के साथ लक्ष्य प्राप्त करने के लिए स्वाभिमान / व्यक्तिगत सम्मान की शानदार मात्रा थी।पुनरुद्धार के लिए, समुदाय के पास सरकार के उपयुक्त प्राधिकारियों द्वारा अधिकृत अपने श्रव्य समुदाय ट्रस्टों को बनाने / स्थापित करने के लिए  अपनी आर्थिक शक्ति होनी चाहिए।समुदाय के सभी सक्षम सदस्यों से किफायती योगदान और उसी का उपयोग समुदाय और उसके जरूरतमंद सदस्यों के उत्थान / विकास के लिए किया जाना चाहिये ।सिहोरा, जबलपुर, मप्र के आचार्य श्री शिवप्रसाद सिंह जी द्वारा प्रदान की गई सराहनीय विशेषज्ञ सामुदायिक सेवाओं को जहां "राजभर क्षत्रिय समाज" / "भारशिव  क्षत्रिय समाज" के क्षेत्र में स्थापित करने और फैलाने के लिए समुदाय के विकास के महान कारण के लिए जहाँ भी लाभकारी ठहराया जाए, लागू किया जाना चाहिए। नागवंशी क्षत्रिय समाज / अग्निवंशी क्षत्रिय समाज / भरतवंशी क्षत्रिय समाज / देव- वंशी क्षत्रिय समाज / राजवंशी क्षत्रिय समाज /।यहां तक ​​कि जातिगत शीर्षक "राजभर" / "भर" को मुगल सम्राट अकबर द्वारा मुगलों के आगे  आत्मसमर्पण नहीं करने और "क्षत्रिय" / "राजपूत" के रूप में जाति को फिर से स्वीकार करने के लिए मृत्युदंड के रूप में पुरस्कृत किया गया है।जो भी वैध कारण बताए गए हैं उनके प्रमाण यहां दर्ज नहीं किए जा रहे हैं और बहुत ही पछतावा हो रहा है।यह संबंधित समुदाय के पाठकों के साथ-साथ सामाजिक साहित्यकारों के लिए संक्षिप्त आंख खोलने वाला है।

हम पूरी तरह से आशावादी हैं और पूरी तरह से विश्वास करते हैं कि सम्बंधित  समुदाय निश्चित रूप से बहादुर  भारशिव क्षत्रिय / राजपूत वंशों की अपनी पैतृक गरिमा को प्राप्त करेगा और जल्द ही अन्य राजपूत समुदायों की मुख्य धारा के साथ सामाजिक राजपुताना स्थिति  में सम्‍मिलित होगा ।भविष्य में चमकदार सफलताओं के लिए सभी शुभकामनाएं। संबंधित समुदाय की नई पीढ़ी के सभी युवाओं से अपील है कि वे सभी स्तरों पर शुरू होने वाले सभी विषयों पर क्षत्रितवा / राजपूताना की क्रांतियों / जनक्रांति का निर्माण करने वाली पवित्र सामुदायिक सेवाओं के लिए गाँव और छोटे शहर तालुका / तहसील, परिदृश्य, राज्य और राष्ट्र के लिएआगे आएं। । जय भवानी और जय राजपुताना

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