वेदों में भर शब्द---विहंगावलोकन ☻
[ लेखक---आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ''राजगुरू'']
सामवेद की ऋचाएं पढते समय मेरा ध्यान -''अभीष तस्तदा भरेन्द्र ज्याय;कनीयस; । पुरूवसुर्हि मघवन वभूविथ भरे भरे च हव्य; । /7/ [3-8] की ओर गया ,जिसमें कहा गया है कि -हे महान इन्द्र , उस याचित धन को सब ओर से लाकर दो । तुम बहुतों द्वारा याचना करने योग्य तथा संग्रामों में बुलाए जाने योग्य हो । '' इस ऋचा में भरेन्द्र शब्द ध्यान देने योग्य है जिसमें भर का अर्थ महान अथवा पूर्ण है। चूंकि ऋगवेद में भरत [भर ] जाति का उल्लेख पाया जाता है और वेदों में बार बार भ्ार ,भरत शब्द का प्रयोग किया गया है इससे लगता है कि भर शब्द की बहुत अहमियत थी और उस भर जाति का जिसका उल्लेख करना पुराणकारों ने उचित नहीं समझा वैदिक काल में आदर योग्य थीा शब्दों की रचना एवं उनके अर्थ का संधारण यों ही नहीं हो जाता ा यदि भर जाति इतनी गई गुजरी होती तो वेदों में इस शब्द का महान अथवा पूर्ण के अर्थ में प्रयोग न होता।
ऋगवेद हो या यजुर्वेद अथवा साम वेद भर शब्द का बार बार प्रयोग हुआ हैा सामवेद में --''अग्ने विवस्वदा भरास्मभ्यमंतये महे [ 10-1-1 ] , नमो भरन्ति एमसि [4-1-2 ] , आनो अग्ने रयिं भर सत्रासाहं वरेण्म [2-14-4 ] , आदि अनेक ऋचायें एवं यजुर्वेद में --'' रास्वेयत्सोमाभूयो भर देवो न; वसोर्दाता वस्वदात [4-16] , पिप़्रतां नो भरीनभि ; [8-3] , अग्नि भरन्त मस्युम [ 11-13 ] , अदब्धव्रतप्रमतिर्वषिठ;सहस्त्रम्भर;शुचि-जिहवौsअग्नि [11-36] '' आदि अनेक ऋचायें हैं जिनमें भर शब्द का प्रयोग पूर्ण ,महान ,सफल ,उपस्थित , प्रेरणा ,प्रदाता ,दया ,दाता ,पालक आदि के बारे में हुआ है। भर शब्द का प्रयोग वेदों में अच्छे अर्थ में हुआ हैा
वेदों की ऋचाओं को गम्भीरता से लिया जाये तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि भर शब्द का वैदिक ऋचाओं में जिन अर्थों में प्रयोग हुआ है भर जाति उन्हीं अर्थों के अनुरूप पूर्णता को प्राप्त कर चुकी थी। भर जाति महान थी ,सफल थी , दाता थी ,प्रदाता थी , पालक थी ,दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत थी , दयालु थी। चूंकि भर जाति नाग वंश से सम्बंधित है इसीलिए सभी महान गुणों को धारण करने एवं प्रथ्वी वासियों का यथार्थ पालक होने के कारण इस धारणा ने जन्म लिया कि शेषनाग [ महाराजा शेष ] धरती को [ भू-मण्डल को ] अपने सिर पर धारण किए हुए हैं अथवा उठाये हुए हैं। जिस प्रकार ब्रम्ह को यथार्थ रूप में जान लेने वाले को ब्राहमण कहा गया है उसी प्रकार प्रजा पालन अथवा मानवीय सम्पूर्ण सदगुणों से परिपूर्ण जाति को भर कहा गया हैा सर्वगुण सम्पन्न ,पूर्णता का प्रतीक भर शब्द जो कि गुणवाचक है जाति वाचक हुआ है।
महापण्डित राहुल सांक्रत्यायन ने भर जाति के सम्पूर्ण गुणों के कारण ही इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। वैदिक काल की महान भर जाति पुराण रचनाकाल तक आते आते ब्राम्हणवाद का शिकार हो गई। वैदिक ऋषियों ने जिस भर शब्द को सर्वगुण सम्पन्न अर्थ में ग्रहण किया वहीं पुराणकारों ने इसे बर्बर शब्द के समानार्थी प्रयोग का प्रयास किया एवं अत्यन्त सभ्य सुसंस्क्रत जाति की सभ्यता एवं संस्क्रति का विनाश कर उसे वनवासी एवं अछूत बना दिया।
''भरों ने भरण किया संसार का , भर प्रतीक थे लोक व्यवहार का ।।
सम समाज की संरचना के पोषक , हो गये शिकार अत्याचार का ।।
जिन्हें शरण दिया उनने पाकर मौका, भरों की पीठ पर ही चांजर भौंका।। ''
[ टिप्पणी- टाइप में अहा दो बिन्दी, आदि कुछ शब्द नहीं मिल पाये अतएव पाठक गण शुद्ध रूप सुधर कर padhen ]
[ लेखक---आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ''राजगुरू'']
सामवेद की ऋचाएं पढते समय मेरा ध्यान -''अभीष तस्तदा भरेन्द्र ज्याय;कनीयस; । पुरूवसुर्हि मघवन वभूविथ भरे भरे च हव्य; । /7/ [3-8] की ओर गया ,जिसमें कहा गया है कि -हे महान इन्द्र , उस याचित धन को सब ओर से लाकर दो । तुम बहुतों द्वारा याचना करने योग्य तथा संग्रामों में बुलाए जाने योग्य हो । '' इस ऋचा में भरेन्द्र शब्द ध्यान देने योग्य है जिसमें भर का अर्थ महान अथवा पूर्ण है। चूंकि ऋगवेद में भरत [भर ] जाति का उल्लेख पाया जाता है और वेदों में बार बार भ्ार ,भरत शब्द का प्रयोग किया गया है इससे लगता है कि भर शब्द की बहुत अहमियत थी और उस भर जाति का जिसका उल्लेख करना पुराणकारों ने उचित नहीं समझा वैदिक काल में आदर योग्य थीा शब्दों की रचना एवं उनके अर्थ का संधारण यों ही नहीं हो जाता ा यदि भर जाति इतनी गई गुजरी होती तो वेदों में इस शब्द का महान अथवा पूर्ण के अर्थ में प्रयोग न होता।
ऋगवेद हो या यजुर्वेद अथवा साम वेद भर शब्द का बार बार प्रयोग हुआ हैा सामवेद में --''अग्ने विवस्वदा भरास्मभ्यमंतये महे [ 10-1-1 ] , नमो भरन्ति एमसि [4-1-2 ] , आनो अग्ने रयिं भर सत्रासाहं वरेण्म [2-14-4 ] , आदि अनेक ऋचायें एवं यजुर्वेद में --'' रास्वेयत्सोमाभूयो भर देवो न; वसोर्दाता वस्वदात [4-16] , पिप़्रतां नो भरीनभि ; [8-3] , अग्नि भरन्त मस्युम [ 11-13 ] , अदब्धव्रतप्रमतिर्वषिठ;सहस्त्रम्भर;शुचि-जिहवौsअग्नि [11-36] '' आदि अनेक ऋचायें हैं जिनमें भर शब्द का प्रयोग पूर्ण ,महान ,सफल ,उपस्थित , प्रेरणा ,प्रदाता ,दया ,दाता ,पालक आदि के बारे में हुआ है। भर शब्द का प्रयोग वेदों में अच्छे अर्थ में हुआ हैा
वेदों की ऋचाओं को गम्भीरता से लिया जाये तो निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि भर शब्द का वैदिक ऋचाओं में जिन अर्थों में प्रयोग हुआ है भर जाति उन्हीं अर्थों के अनुरूप पूर्णता को प्राप्त कर चुकी थी। भर जाति महान थी ,सफल थी , दाता थी ,प्रदाता थी , पालक थी ,दूसरों के लिए प्रेरणा स्रोत थी , दयालु थी। चूंकि भर जाति नाग वंश से सम्बंधित है इसीलिए सभी महान गुणों को धारण करने एवं प्रथ्वी वासियों का यथार्थ पालक होने के कारण इस धारणा ने जन्म लिया कि शेषनाग [ महाराजा शेष ] धरती को [ भू-मण्डल को ] अपने सिर पर धारण किए हुए हैं अथवा उठाये हुए हैं। जिस प्रकार ब्रम्ह को यथार्थ रूप में जान लेने वाले को ब्राहमण कहा गया है उसी प्रकार प्रजा पालन अथवा मानवीय सम्पूर्ण सदगुणों से परिपूर्ण जाति को भर कहा गया हैा सर्वगुण सम्पन्न ,पूर्णता का प्रतीक भर शब्द जो कि गुणवाचक है जाति वाचक हुआ है।
महापण्डित राहुल सांक्रत्यायन ने भर जाति के सम्पूर्ण गुणों के कारण ही इसकी भूरि भूरि प्रशंसा की है। वैदिक काल की महान भर जाति पुराण रचनाकाल तक आते आते ब्राम्हणवाद का शिकार हो गई। वैदिक ऋषियों ने जिस भर शब्द को सर्वगुण सम्पन्न अर्थ में ग्रहण किया वहीं पुराणकारों ने इसे बर्बर शब्द के समानार्थी प्रयोग का प्रयास किया एवं अत्यन्त सभ्य सुसंस्क्रत जाति की सभ्यता एवं संस्क्रति का विनाश कर उसे वनवासी एवं अछूत बना दिया।
''भरों ने भरण किया संसार का , भर प्रतीक थे लोक व्यवहार का ।।
सम समाज की संरचना के पोषक , हो गये शिकार अत्याचार का ।।
जिन्हें शरण दिया उनने पाकर मौका, भरों की पीठ पर ही चांजर भौंका।। ''
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BY- कैलाश नाथ राय भरतवंशी
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