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RAJBHARO KA SASHAN




          
 हमने पहले ही कहा है कि राजभर शासकों के विषय में भारतीय इतिहासकार मौन रहे हैं ,खासकर के 18 वीं सदी के पहले भारत में इतिहास लिखने की आवश्‍यकता ही नहीं महसूस की गई । संस्‍कृत के विद्वानों ने अपने साहित्‍य को वेद,पुराणों तथा कथाओं तक ही सीमित रखा । मुस्लिम इतिहासकारों ने इतिहास लेखन का कार्य किया ,परन्‍तु भारतीय इतिहास को गौण मानकर इतिहास लिखा । अत; 18 वीं सदी से पाश्‍चाात्‍य इतिहासकारों ने जनश्रुति, पुराने खण्‍डहर ,ध्‍वंसावशेष, अभिलेख, पुराने टीले ,पुराने सिक्‍के, पुराने इमारतों के र्ठंट व किंवदन्तियों को आधार मानकर शोधकार्य करके भारतीय इतिहास गजेटियर के रूप में तैयार किया । पुन; भारतीय इतिहासकारों में भी अपने इतिहास के प्रति उत्‍कण्‍ठा जगी और इतिहास लिखने का कार्य प्रारम्‍भ हुआ ।
राजभर शासकों के विषय में कुछ इतिहासकारों और शोधकर्त्‍ताओं ने अपने विचार व्‍यक्‍त किए हैं ,जो आपके समक्ष प्रस्‍तुत हैं---
(1) ‘’ सूर्यवेशियों के बाद भर जाति के लोग सम्‍पूर्ण अवध पर छाये हुए थे । राजा परीक्षित ने अवध की जागीर नागवंशी भरों को सौंप दी  ।‘’
(गजेटियर आफ दी प्राविन्‍स आफ अवध वाल्‍यूम 2, 1877, शीर्षक भरस आफ लखनउ पृष्‍ठ 353 ,)
(2)‘’बुद्धकालीन भारत में भर जाति के लोग बहुत शक्तिशाली थे ।‘’
( पुस्‍तक आइनी अकबरी का अनुवाद पृष्‍ठ 112 , अनुवादकर्त्‍ता कर्नल एच;एस; जैकेट)
 (3) ‘’बुद्धकालीन भरों के नाम पर ही बिहार प्रान्‍त का नामकरण किया गया है ,जो उस प्रान्‍त में अधिक शक्तिशाली थे । आजमगढ के कुंवर और मधई नदियों का नामकरण भी भरों के नाम पर किया गया है । ‘’
(कर्नल जे;एच; हट़टन)
(4) ‘’सूर्यवंश के पतन के बाद अयोध्‍या पुन; भरों के अधिकार क्षेत्र में आ गया ।’’
 (सर सी;ए; इलियट का ग्रन्‍थ क्रानिकल्‍स आफ उन्‍नाव)
(5) ‘’अवध के पूरब में चार सौ वर्षों तक (सन 1000 से 1400 ईस्‍वी तक )भरों का साम्राज्‍य था ।‘’
(इण्डियन इन्‍टीक्‍वरी (1872) शीर्षक आन दी भर किंग्‍स आफ ईस्‍टर्न अवध ,गोण्‍डा का बी;सी;एस अंग्रेज अधिकारी डब्‍ल्‍यू;सी; बैनेट)
(6) ‘’ अवध में बहुलता के कारण श्रावस्‍ती पर सुहेलदेव (1027 से 1077) तथा उसके वंशजों ने बहुत दिनों तक शासन किया । ‘’
(हिस्‍ट्री आफ बहराइच  पृष्‍ठ 116, 117)
(7) ‘’बहराइच के प्रमुख गांवों में कर्नल (करनैलगंज) ,जरबल, मोहरी भकौरा ,सकंध, कसेहरी बु; , हसना मुलई ,बैरवा, काजी और मोलीडीह का नाम गिनाया गया है । सहेट-महेट व चर्दा की उत्‍पत्ति भी भर शासकों द्वारा कही गई है । ‘’
(अवध गजेटियर का शीर्षक भर व भरों का भग्‍नावशेष) 
(8) ‘’गोरखपुर से लेकर बुन्‍देलखण्‍ड तथा सागर तक भरों का साम्राज्‍य फैला हुआ था ।‘’
(गजेटियर आफ दी प्राइज़ आफ अवध (1877) भाग-1, इन्‍ट्रोडक्‍शन xxxv एच;एम;इलियट)
(9) ‘’अवध के पूरब में इतिहास द्वारा प्रदर्शित भरों का नगर बहराइच जिला भरों का सबसे प्राचीन नगर है और बहराइच का नाम इन्‍हीं के नाम पर पडा है ।‘’ (क्रानिकल आफ उन्‍नाव पृष्‍ठ 26 सर सी;ए; इलियट)
(10) ‘’ अवधवासी लाला सीताराम जी ने अपनी पुस्‍तक ‘’अयोध्‍या का इतिहास’’ के पृष्‍ठ 42 पर लिखा है कि ‘’यहां के लोग राजभर और भरपतवा कहलाते हैं और किसी समय गोरखपुर से बुन्‍देलखण्‍ड तक इनके राज्‍य में था ।‘’
(सर हेनरी इलियट)  
(11) ‘’अवध में जो दूसरी जाति प्रबल रही है भरों की है । इनमें कुछ राजभर कहलाते हैं ,जिनके नाम से प्रकट है कि इस जाति के लोग पहले राजा थे । अवध प्राइज़ में अब भी भरों के भग्‍नावशेष पाये जाते हैं ।‘’
( अयोध्‍या का इतिहास-शीर्षक अयोध्‍या के आदिमवासी ,पृष्‍ठ 41 लेखक लाला सीताराम अवधवासी)
(12) ‘’मलिक मुहम्‍मद जायसी शीर्षक अंग्रेजी लेख में हमने लिखा है कि गढ अमेठी और जायस जिसका प्राचीन नाम उदयनगर (या उद्याननगर) था , दोनों पहले भरों के अधिकार में था ।‘’
(संदर्भ उपरोक्‍त)
(13) ‘’ अवध गजेटियर में लिखा है कि भर जाति के लोग अवध के पूर्व जिलों में इलाहाबाद और मिर्जापुर में पाये जाते हैं । कुछ लोग इन्‍हें क्षत्रिय मानते हैं ।‘’ (संदर्भतदैव)
 (14)’’ मिर्जापुर में परगना भदोही का मूल रूप भरदही है । यहां अनेक गढियां और तालाब भरों के बनवाये पाये जाते हैं । ;;;;;;अवध गजेटियर में लिखा है कि मिर्जापुर के पूरब के पहाडी प्रान्‍त में अब तक भर राजा है । सर हेनरी इलियट के अनुसार यहां यह लोग राजभर व भरपतवा कहलाते हैं‘’ (संदर्भतदैव पृष्‍ठ 42)
(15) ‘’ ऐसा जान पडता है कि अवध के पश्चिम में पासी, अवध के पूर्व व मध्‍य में भर, गोरखपुर और बनारस के कुछ भाग में चीरू एक ही समय में राज करते थे । हजारों वर्ष पहले आर्यों ने इनको अपने अधीन कर लिया था । इन्‍हें मारकर उत्‍तर या दक्षिण पहाडी प्रान्‍त में भगा दिया था और जब सूर्यवंश के घटती के दिन आये तो ये पुन; प्रबल हो गये ।‘’
(संदर्भतदैव 42)
 (16) ‘’ भरों की सम्‍पत्ति (साम्राज्‍य) छीन ली गई । बहुतों का आंख निकलवाकर जेल में डाल दिया गया । अन्‍य अमीरों को उन्‍मूलित करने में सुल्‍तानों ने लेशमात्र भी संकोच नहीं किया । उनके पदाधिकारियों और सम्‍बंधियों को विष दिलवाकर उनकी जीवन लीला समाप्‍त कर दिए । भरों की औरतों के साथ अभद्र व्‍यवहार तक किया गया ।‘’
(भारतवर्ष का वृहद इतिहास , पृष्‍ठ 579, लेखक श्रीनेत्र पाण्‍डेय)
 (17) ‘’ 12 वीं सदी में गोरखपुर का भूभाग भरों के राज्‍य का एक अंग था । उनवल रतनपुर मगहर तथा हवेली के भू-भागों को श्रीनेत्र क्षत्रिय भगवन्‍तसिंह ने छलपूर्वक भरों को युद्ध में पराजित करके कब्‍जा किया था और सत्‍तासी राज्‍य की स्‍थापना की थी ।‘’
 (कमिस्‍नर्स आफिस गोरखपुर रेवेन्‍यू रिकार्ड रिलेटिंग टू दी गोरखपुर डिस्ट्रिक् इन्‍क्‍लूडिंग बस्‍ती खण्‍ड 74 फाइल नम्‍बर 91, मिसिल नम्‍बर 58 पृष्‍ठ 116)
(18) ‘’ आजमगढ के प्राचीन भू क्षेत्र का अधिकतर भाग जंगलों से ढंका हुआ था । जिसमें अनार्य लोगों का निवास था । इन अनार्य तथा आर्य लोगों में प्राय; मुठभेड हुआ करती थी । पुराणों में इसे सुर असुर संग्राम कहा गया है । अनार्य जाति के सरदारों ने जंगलों में अपने निवास के लिए कोटे (किला) बना लिए थे । इन जनजातियों में एक वर्ग भरों का भी था । ये लोग चेरुओं और सिउरी लोगों से कुछ अधिक सभ्‍य थे । भरों ने आर्यों से युद्ध करके जगह जगह अपनी छोटी छोटी सरकारें बना ली थीं । इनका प्रभाव दूर दूर तक फैला था । जिले के हरवंशपुर में भरों की कोटें थीं । जिले के कौडिया के निकट ,भरांव, अरांव ,जहनियां में भर राजा अयोध्‍या की कोटें थीं । सदर तहसील के आवक गांव में जो अब अवन्तिकापुर हो गया है, यहां पर राजा परीक्षित की कोटें थीं । आजमगढ के उत्‍तर भदांव व धनछुला गांवों में भर राजा आसिलदेव  और गरकदेव की कोटों (किला) के अवशेष मिले हैं ।‘’
(आजमगढ का इतिहास पृष्‍ठ 6 लेखक अमरनाथ त्रिपाठी )
(19) ‘’ बनारस की आबादी में भर इत्‍यादि जातियों का संख्‍या काफी है । काशी एवं उसके आसपास इलाकों में यह अनुश्रुति प्रचलित है कि एक समय में बनारस एवं गाजीपुर में भरों एवं सुइरों का जो निश्चित अनार्य जातियां थीं , प्राधान्‍य था । बनारस शहर में तो नहीं पर गाजीपुर में मसोनडीह के सबसे नीचे स्‍तर से बाराबंकी जिले के वैराट से, मिर्जापुर के पास से मि; कालईल को प्रस्‍तर युग के हथियार मिले हैं । यह मानने में आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि जिस आदिम सभ्‍यता के प्रतीक ये पत्‍थर के हथियार हैं ,उनका अधिकार बनारस व उनके आसपास के इलाकों में रहा होगा । सम्‍भव है कि आर्यों के काशी पर अधिकार कर लेने के बाद भी इन आदिम जातियों का बनारस के आसपास काफी प्रभाव था ।‘’
(काशी का इतिहास ,अध्‍याय 2 पृष्‍ठ 19, लेखक मोतीचन्‍द्र)
(20) ‘’ 500 ईस्‍वी से 450 ईस्‍वी पूर्व के समय में अवध का सम्‍पूर्ण प्रदेश भरों और थारुओं ने सूर्यवंशियों से अपने अधिकार में लिया था ।‘’
(डॉ; फानसिस बुचानन एवं एचकिन्‍सन)
(21) इलाहाबाद के सूबे आगरा के सूबे तथा दिल्‍ली के सूबे के अधिकतर परगने भरों के नाम पर नामकरण किए गये हैं ।‘’
(आइनी अकबरी लेखक अब्‍दुल फजल)
(22) ‘’ बहराइच से भरों के पतन के बाद भर लोग अवध के दक्षिण की तरफ बढने लगे और सुल्‍तानपुर तथा फैजाबाद में अपना साम्राज्‍य स्‍थापित किया ।‘’ (क्रानिकल्‍स आफ उन्‍नाव पृष्‍ठ 26, सर इलियट)
(नोटउच्‍च वर्ग के लोग राजभर शासकों से द्वेष भाव रखते थे इसका लाभ विदेशी आक्रमणकारियों ने लिया । विदेशी आक्रान्‍ताओं ने राजपूतों को पद व धन का लालच देकर राजभर शासकों के विरुद्ध खडा किया । राजभर शासक पराजित होकर दक्षिण की तरु पलायन कर गये ।)
(23) गोरखपुर का इतिहास लिखते हुए अंग्रेज इतिहासकार टामसन ने लिखा है कि—‘’ अयोध्‍या के अन्तिम राजा दीर्घबाहु को मगध देश के नागवंशी बौद्धमती राजा महानन्‍द ने अयोध्‍या से निकाला और वे दक्षिण की ओर चले गये ,जो सिकन्‍दर के लडाई के समय में हुआ था । यह सारा क्षेत्र गोरखपुर ,बस्‍ती, आजमगढ से इलाहाबाद तक भरों के अधीन था और तब तक भरों के अधीन था जब तक कि वे क्षत्रिय थे । बाद में बौद्धों के भय से ये लोग पश्चिम की ओर चले गये । लेकिन दिल्‍ली व कन्‍नौज टूटने से अपने को मुसलमानों से बचाने के लिए इधर को न आये ।‘’
 (श्री संजय तिवारी दैनिक जागरण, गोरखपुर, शुक्रवार 10 जून 2005) 
वर्तमान में जो क्षत्रिय जातियां हैं वे सभी क्षत्रिय जातियां निश्चित रूप से आर्यों की क्षत्रिय जातियां नहीं हैं । परशुराम जी ने क्षत्रियों को 21 बार पृथ्‍वी से विहीन किया था । अत; पृथ्‍वी पर जो भी क्षत्रिय जातियां हैं वे आर्यों के वर्ण व्‍यवस्‍था के तहत बनी हैं । आर्यों की वर्ण व्‍यवस्‍था निम्‍नवत था ।;;;(क)ब्राह़मणपठन पाठन का कार्य एवं यज्ञ (ख)क्षत्रियशासन व्‍यवस्‍था का कार्य (ग)वैश्‍यकृषि एवं व्‍यापार कार्य (घ)शूद्रसेवा कार्य 
उपर्युक्‍त वर्ण व्‍यवस्‍था के अनुसार समय समय पर जिन जातियों ने भारत में शासन किया, उन्‍हें क्षत्रिय जाति में समाहित कर लिया गया । इसी वर्ण व्‍यवस्‍था के तहत राजभर जाति को भी राजसत्‍ता पर काबिज होने तक क्षत्रिय कहा गया । राजपूत युग के निर्माताओं में राजभर जाति का प्रमुख स्‍थान रहा है । शक, हूण ,व कुषाणों को पराजित करके भारत में अपनी सत्‍ता स्‍थापित करने पर राजभर जाति को नवीन क्षत्रिय जातियों में समाहित कर लिया गया । परन्‍तु सत्‍ता से बेदखल होते ही अपनी दीनहीन दशा के कारण निम्‍न जाति की श्रेणी में आ गये ।
(24) ‘’आर्यावर्त के कुषाण राज्‍य को उखाडने वाले नागराजा अपने उत्‍तराधिकारी वाकाटकों के अभिलेखों के अनुसार अपने को शिव का भार कन्‍धे पर उठाने वाले नन्‍दी समझने के कारण भारशिव कहते थे । इन्‍होंने गंगा, यमुना दोआब का उद्धार करने के कारण गंगा-यमुना के संकेतों को अपना राज चिन्‍ह बनाया । नवनाग लगभग 140 से 170 ईस्‍वी से भवनाग सन 290 से 375 ईस्‍वी पर्यन्‍त तक भारशिवों के सात राजा हुए जिन्‍होंने बनारस में दस बार अश्‍वमेध यज्ञ करके सारे भारत में प्रभुत्‍व घोषित किया है । कान्तिपुरी के अतिरिक्‍त मथुरा, पद़मावती (ग्‍वालियर राज्‍य) ,पद़माचार्य आदि में उन्‍होंने शाखा वंश स्‍थापित किए ।‘’ (पुस्‍तक-मध्‍यप्रदेश अध्‍याय 7, पृष्‍ठ 132, 133, लेखक धीरेन्‍द्र वर्मा)
(25) ‘’उत्‍तरप्रदेश, पश्चिम बिहार, बुन्‍देलखण्‍ड एवं बघेलखण्‍ड में भी नागों ने कुषाणों के राज्‍य को जीतकर शासन किया था । पुराना विदिशा, पद़मावती, मथुरा और कान्तिपुर को इनका मुख्‍य केन्‍द्र माना जाता है । इनके प्रसिद्ध राजा नागराज वीरसेन ने मथुरा में अपना आधिपत्‍य स्‍थापित किया था । बघेलखण्‍ड के नागों ने जिनको भारशिव की उपाधि से विभूषित किया जाता है, कान्तिपुर से आगे बढकर साम्राज्‍य के पूर्वी भाग को स्‍वाधीन कर लिया था । इन भारशिवों ने दस अश्‍वमेध यज्ञ किए थे । ये यज्ञ काशी के जिस स्‍थान पर हुए थे उसे दशाश्‍वमेध घाट के नाम से आज भी जाना जाता है । दशाश्‍वमेध घाट काशी का प्रमुख घाट है जो अश्‍वमेध यज्ञ के कारण प्रसिद्ध हुआ । ‘’
 (पुस्‍तकनागवंश शीर्षक नागवंश का विस्‍तार ,पृष्‍ठ 45 लेखक विमलेश्‍वरीसिंह) 
(26) ‘’ बहुत से राजपूतों की रंगों में भरों का खून बहता है एवं शाहाबाद के परिहार राजपूत भरों के वंशक्रम में आते हैं ।‘’
(डॉ; फान्सिस बूचानन)
 (27)’’वास्‍तव में भर लोग देश के एक महत्‍वपूर्ण भू-भाग के शासक एक बार रह चुके हैं । इनका साम्राज्‍य अवध से लेकर पूरब बिहार तक तथा दक्षिण में छोटा नागपुर ,बुन्‍देलखण्‍ड एवं सागर तक फैला हुआ था । उनका नाम अभी तक बहार (बिहार), बहराइच (भर्राइच), बारा, बडा गांव, बाराबंकी, बहरापार और बरवान;;;;;बावा में छोटा नागपुर और बहुत से स्‍थानों में अधिक काल तक जीवित है;;;;;। परगना भरदोई, भरोसा, बहराइच, भरौली व भरतीपुर नगर, भरों की राजधानी कुशभावनपुर उर्फ सुल्‍तानपुर के नजदीक ऐसा सभी विश्‍वास करते हैं के भरों के नाम से इनका नाम रखा गया है ।‘’
(बंगाल ऐसिशटिक जनरल वाज्‍यूम 45 पृष्‍ठ 303, शीर्षक ‘’भरस़ आफ अवध एण्‍ड बनारस लेखक पैट्रिक करनेगी)
 (28) ‘’ तीसरी शताब्‍दी के पूर्वाद्ध के लगभग बुन्‍देलखण्‍ड एवं विन्‍ध्‍याचल तक भारशिवों का शासन था । वे बनारस में गंगा तट पर अब तक 10 अश्‍वमेध यज्ञ कर चुके थे । यह स्‍थान आज भी दशाश्‍वमेधघाट के नाम से प्रसिद्ध है;;;;। मेरा अपना विश्‍वास है कि वे भर या राजभर उन भारशिवों के वंशज हैं जिन्‍होंने विन्‍ध्‍याचल क्षेत्र के कान्तिपुर नामक स्‍थान में अपनी राजधानी बनाकर भारत से शकों को मार भगाने का उपक्रम किया था ।  12 वीं सदी तक बनारस राज्‍य इन्‍हीं के अधिकार में था । कहा जाता है कि चन्‍दोताल इन्‍हीं का बनवाया हुआ था ।’’
 (पुस्‍तकराजकलश का शीर्षक पूर्वाभास पृष्‍ठ 10 से 11, लेखक श्री अमरबहादुरसिंह ‘’अमरेश’’)
(29)’’ गहरवारों के पराजय के बाद आक्रमणकारी यवन शासकों से भरों ने डटकर लोहा लिया । लगभग 200 वर्षों तक अनवरत संघर्ष चलता रहा । यवन शासकों ने इस वीर एवं लडाकू जाति के विनाश में कोई कोर कसर नहीं उठा रखी । सुल्‍तान अल्‍तमश के पुत्र अलाउद़दीन ने बहराइच में भरों के विनाश में लगभग डेढ लाख मुसलमान कटवा दिए । जिस समय यह वीर जाति यवन शासकों से लड रही थी उसी समय राजपूतों ने भी इन पर आक्रमण कर दिया । यवन शासकों से परास्‍त होकर ये जंगलों में जाकर शरण लिए । ये राजभर इतने पददलित हुए कि इनसे अछूतों जैसा व्‍यवहार होने ल्रगा ।‘’
(राबरेली गजेटियर पृष्‍ठ 163, लेखक डब्‍ल्‍यू सी बैनेट) 
(30)’’भारत के मूल निवासी भर जाति जब आर्यों से पंचनद प्रदेश में पराजित हो गई तब आर्यों के देवी देवताओं को पूजने लगी । ऐसा लगभग 150 वर्षों तक चला । भर जाति पूरब की ओर कबीलों के रूप में बढने लगी । विन्‍ध्‍याचल क्षेत्र में वे अपने आराध्‍यदेव शिव व उनके लिंग की महत्‍ता पुन; स्‍थापित करना चाहते थे । तभी वे भारशिव कहलाये । ऐसा देख आर्यों ने भी शिव को अपना देवता मान लिया ।‘’
(हिस्‍ट्री आफ इण्डिया 150 से 350 ईस्‍वी लेखक काशीप्रसाद जायसवाल)
(31) ‘’ सन 1869 के पहले तहसील टांडा जिला अम्‍बेडकरनगर से सम्‍बद्ध था । यह नगर जलालपुर अंग्रेजी शासन से पूर्व अवध से भी बाहर था । इसका सम्‍बंध अकबरपुर व फैजाबाद से न होकर जौनपुर एवं इलाहाबाद से था । यदि इतिहास के धूमिल पडे पन्‍नों की तरु नजर डालें तो मिलता है कि सन 1300 ईस्‍वी से पहले जलालपुर के आसपास राजभरों का राज्‍य था । परिस्‍थितियों के चलते राजभर शासकों के टूट जाने के बाद भी इस क्षेत्र में उनकी प्रभुता रही । सुरहुरपुर, भुजनी इनका बाहुल्‍य रहा । राजभरों का सुरहुरपुर राज्‍य सैयद सालार मसौद गाजी मियां ने जीत लिया । भुजनी राज्‍य पर क्षत्रियों ने कब्‍जा कर लिया । इसके अलावा अन्‍य तमाम छोटे छोटे राजभर समूहों को तत्‍कालीन शासकों ने तहस नहस कर उन्‍हें मिटा दिया । आज वे जहां भी हैं, दबी कुचली जिन्‍दगी जीने को मजबुर हैं ।‘’
 ( जनमोर्चा ,मंगलवार 6 दिसम्‍बर 2005 ,स्‍थापना दिवस परिशिष्‍ट शीर्षक ‘’अदब और साहित्‍य के कैनवास पर चमक रहा है जलालपुर’’, संवाददाता श्री घनश्‍याम भारतीय ,जलालपुर अम्‍बेडकर नगर )
(32) ‘’ हिन्‍दू साम्राज्‍य पुनर्गठन का आरम्‍भ चौथी शताब्‍दी में समुद्रगुप्‍त से नहीं माना जा सकता है और न वाकाटकों से ही माना जा सकता है जो इससे प्राय; एक शताब्‍दी पूर्व हुए थे बल्कि उसका आरम्‍भ भारशिवों से होता है जो उनसे भी प्राय; पचास वर्ष पूर्व हुए थे । ;;;;वाकाटकों ने साम्राज्‍य का शासन और सर्वप्रधान एकाधिकार भारशिवों से प्राइज़ किया था, जिनके राजवंश ने गंगा तट पर 10 अश्‍वमेध यज्ञ किए थे और इस प्रकार बार बार आर्यावर्त में अपना एक छत्र साम्राज्‍य होने की षोषणा की थी । यहां यह कहने की आवश्‍यकता नहीं है कि ये अश्‍वमेध यज्ञ कुशन साम्राज्‍य नाश करके किए गये थे ।‘’
 (पुस्‍तक- भारत का अन्‍धकार युगीन इतिहास पृष्‍ठ 5 एवं 7 लेखक काशीप्रसाद जायसवाल ) ,
’’ हम मोटे हिसाब से कह सकते हैं कि भारशिवों का आरम्‍भ 150 ईस्‍वी में हुआ था । भारशिवों ने पुरानी हिन्‍दू परम्‍परा का पुनरुद्धार किया । भारशिवों ने जो परम्‍परा चलाई वाकाटकों ने उसकी रक्षा की ,गुप्‍तों ने भी उसको ग्रहण किया । चन्‍द्रगुप्‍त विक्रमादित्‍य से लेकर बालादित्‍य तक ने पूर्णरूप से उसकी रक्षा की । यदि भारशिव न होते तो न तो गुप्‍त साम्राज्‍य ही अस्तित्‍व में आता और न गुप्‍त विक्रमादित्‍य आदि ही होते ।‘’
( पुस्‍तक-तदैव शीर्षक भारशिवों का आरम्‍भ पृष्‍ठ 9 एवं 10 पैरा 6)
‘’ जब प्राय; सौ वर्षों तक कुषाणों का शासन रह वुका ,तब उसके बाद भारशिव वंश का एक हिन्‍दू राजा गंगा के पवित्र जल से अभिषिक्‍त होकर हिन्‍दू सम्राट के पद पर प्रतिष्ठित हुआ था ।‘’ (पुस्‍तक तदैव शीर्षक भारशिव कौन थे पैरा 10 पृष्‍ठ 11)
 ‘’ भारशिवों ने आर्यावर्त में फिर से हिन्‍दू राज्‍य की स्‍थापना की थी । उन्‍होनं हिन्‍दू साम्राज्‍य का सिंहासन फिर से स्‍थापित कर दिया था । राष्‍ट्रीय सभ्‍यता की भी प्रस्‍थापना कर दी थी और अपने देश में एक नवीन जीवन का संचार कर दिया था ।‘’
 (पुस्‍तक तदैव पृष्‍ठ 97 )
 (33) ‘’इतिहास समाप्‍त करने के बाद मैंने (के;पी;जायसवाल) कुछ विशेष बातों का निश्‍चय करने के लिए एक प्रवास दिसम्‍बर 1932 ईस्‍वी नागौद (नौगढ मध्‍यप्रदेश का बुन्‍देलखण्‍ड) में किया था । नागौढ (नौगढ) की कौन्सिल के प्रेसीडेन्‍ट लाल साहब महाराज कुमार भारगवेन्‍द्रसिंह जी तथा दूसरे लागों से मैंने कई अनुश्रुतियां सुनी थीं जो उचहरा ,नचना और नागौद राज्‍य करने वाले राज्‍यकुलों के सम्‍बन्‍धों में प्रचलित थीं । कहा जाता है कि नागौद और नचना के पुराने शासक भर थे और उचहरा के शासक सन्‍यासी थे । ऐतिहासिक दृष्टि से ये वही सन्‍यासी हैं जो शिलालेखों आदि में परिब्राजक महाराज कहे जाते हैं। और भर लोग सम्‍भवत; भारशिव होंगे ;;;;;;। भूभरा में कोई भर गांव नहीं है ,परन्‍तु लाल साहब ने जो नागौद के स्‍वर्गीय राजा साहब के दत्‍तक पुत्र हैं और उस जमीन का चप्‍पा चप्‍पा जानते हैं ,उन्‍होंने मुझे बताया कि इस राज्‍य के भर लोग यज्ञोपवीत पहनते हैं और निम्‍न कोटि के क्षत्रिय माने जाते हैं ।‘’
 (भारत का अन्‍धकार युगीन इतिहास लेखक काशीप्रसाद जायसवाल ,शीर्षक ‘’प्राचीन राजकुलों से सम्‍बन्‍ध्‍ा’’ पृष्‍ठ 406 से 407 )
(34) भर या राजभर या भारशिव—‘’भारत के विभिन्‍न भागों में सन 150 से 204 ईस्‍वी तक नागवंशीय राजाओं का राज रहा । इन नागवंशी राजाओं में शेषनाग प्रमुख थे ।इनकी वंश परम्‍परा के प्रथम नौ राजाओं को नवनाग या भारशिव कहा जाता था । नरवर कान्तिपुर व मथुरा इनकी राजधानियां रही हैं । वर्तमान मिर्जापुर ,सीधी व बांदा जिलों में इनके कई किले ,खण्‍डहर के रूप में विघ्‍मान हैं , और ये दलित जाति माने जाते हैं, जबकि नागवंश सूर्यवंश की एक शाखा मानी जाती है और पौराणिक काल में ये बडे बडे साम्राज्‍यों के स्‍वामी रहे हैं ।‘’
(पुस्‍तक आदिवासी या जनजाति नहीं थे ये मध्‍यकालीन स्‍वतंत्रता सेनानी ,शीर्षक अतीत व उदग़म पृष्‍ठ 39 लेखक रामफल सिंह ‘’रामजी भाई’’प्रकाशक भारतीय सामाजिक इतिहास संस्‍थान, नयी दिल्‍ली )
राजभरों के शासनकाल के विषय में कोई भी इतिहासकार या शोधकर्त्‍ता स्‍पष्‍ट रूप से उल्‍लेख नहीं किया है ।


इतिहासकारों एवं शोधकर्त्‍ताओं के लेखों की समीक्षा करने पर मुख्‍य रूप से उत्‍तर भारत में राजभर शासकों के निम्‍नलिखित शासनकाल स्‍पष्‍ट होते हैं---



(1) आर्यों के भारत में आगमन के पहले अर्थात 2000 ईस्‍वी पूर्व के पहले ।
(2) अयोध्‍या में सूर्यवंशियों के पतन के बाद ।
 (3) छठी शता‍ब्‍दी ईस्‍वी  पूर्व के आसपास ।
(4) कुषाणों के शासनकाल के बाद अर्थात 150 ईस्‍वी से 320 ईस्‍वी तक । (5) लगभग 10 वीं सदी से 15 वीं सदी तक ।
(35) ‘’ विदेशी मुस्लिम आक्रान्‍ताओं के समय तक व उसके पूर्व राजनीतिक परिदृश्‍य पर दृष्टि डालते हैं तो आश्‍चर्यजनक स्थिति देखने को मिलती है वह यह कि इस समय जिन जातियों व वर्गों की पहचान पिछडे, दलित ,हरिजन आदि के रूप में हो रही है उस समय वे शासक जातियां थींा उनके बडे से बडे साम्राज्‍य थे । पाल या पल्‍लव, शाक्‍य, गुर्जर ,प्रतिहार, गुप्‍त, यादव, जाट, मौर्य, चौहान या चाहमान, लिच्‍छवी, मग, भारशिव या राजभर, वाकाटक, नागवंश, मालव, अर्जुनायन, योद्धेय, माद्रक, आभीर या अहीर, मल्‍ल, गहिलौत या गहलोत, चाप या चावोत्‍कट या चावडा-चाकर ख्या चमार, चालुक्‍य या सालंकी या  सोलंकी, केवट, सेन, पासवान आदि सभी जातियां शासक थीं ।‘’
 (पुस्‍तकऐतिहासिक सच, शीर्षक राजनीतिक स्थिति पृष्‍ठ 3 लेखक श्रीरामफलसिंह ‘’भाई जी’’)  
( उपरोक्‍त लेख संकलन श्री रामचन्‍द्र राव, ग्राम खैराबाद पोस्‍ट परशुरामपुर जिला गोरखपुर उ;प्र;)

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6 टिप्पणियाँ

  1. भारत की मूलतः जातियों में भारशिव नागवंश की प्राचीनतम शक्तिशाली बहादुर कौम भर/राजभर जाति जिसने देश की व समाज की आन बान शान के लिए विदेशी आक्रमणकारियों से एकता अखंडता संप्रभुता एवं उसके संस्कृति सभ्यता की की रक्षा करने वाली जाति का एक स्वर्णिम इतिहास रहा है परंतु परिस्थितियों बस यहाँ की सामंती ताकतों की विदेशियों की मिलीभगत से एक लंबे खडयंत्र सहित ऐसा दमनचक्र चलाया की यह समुदाय शासक कौम से आज इस लोकतंत्र में गैरबराबरी असमानता के आधार पर भारतीय सामाजिक विधान के कुचक्र में फंसकर अपने मूलभूत मौलिक अधिकारों से वंचित है
    डॉ पंचम राजभर
    कुरथुवा ,बरदह मार्टिनगंज आज़मगढ़ उ प्र
    9452292260 9889506050
    द्रप्रज्भर1962@gmail, com

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  2. *भारत सरकार*
    *Government of India*
    कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय
    Ministry of Personnel, Public Grievances & Pensions
    Grievance Status for registration number : *PMOPG/E/2018/0568443*
    Grievance Concerns To
    Name Of Complainant
    Pancham Rajbhar
    Date of Receipt
    *14/12/2018*
    Received By Ministry/Department
    *Prime Ministers Office*
    Grievance Description
    सेवामें , माननीय मानव संसाधन विकास मंत्री जी भारत सरकार नई दिल्ली - विषय :- भारत सरकार द्वारा अनुमोदित/संचालित पाठ्य पुस्तकों में 11 वी सदी के राष्ट्रनायक भारशिव नागबंशीय भर कुलभूषण श्रावस्ती सम्राट सुहेलदेव जी के जीवन वृतान्तों को निर्दिष्ट करने के संबंध में :- महोदय , आप अवगत ही हैं कि भारत सरकार एवं प्रान्त सरकारों द्वारा समय समय पर देश व मातृभूमि की एकता ,अखंडता,सम्प्रभुता,एवं उसकी संस्कृति ,सभ्यता की रक्षा करने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले उन तमाम राष्ट्रभक्त अमर वीर सपूतों के साहसिक जीवन वृतान्तों को ऐतिहासिक दृष्टिकोण से राष्ट्रीय/प्रान्तीय /क्षेत्रीय स्तर पर सरकार द्वारा मान्य पाठ्य पुस्तकों में अध्ययन/अध्यापन हेतु समाविष्ट कर समाज के प्रसंज्ञान में लाया जाता है जो कि भविष्य के लिए प्रेरणास्रोत है उक्त के क्रम में सादर आपके संज्ञान में अवगत कराना है कि इसी राष्ट्रीय स्तर की कड़ी में 11 वी सदी में जब विदेशी दुर्दान्त आक्रांता सैयद सलार मोहम्मद ग़ाज़ीमिया का प्रादुर्भाव भारत भूमि पर हुआ तो पूरे देश मे धार्मिक कट्टरता इस्लाम के नाम पर तलवार के बल पर लूटते, धर्म परिवर्तन करते तबाही मचाते हुए तत्कालीन श्रावस्ती के सम्राट भारशिव नागवंश के राजभर कुलशिरोमणि जो कि तमाम प्रामाणिक साहित्यों/इतिहासों/अभिलेखों/साक्ष्यों के आधार पर भर/राजभर कौम में जन्मे राष्ट्रवीर परम देशभक्त महाराजा सुहेलदेव जी राज्य में पहुंचा तो सम्राट सुहेलदेव जी ने अपनी अनोखी युद्धनीति से क्षेत्रीय राजाओं को एकजुट कर सेना का नेतृत्व करके तुर्कों की लाखों सेना सहित धर्मान्धता व आतंक का प्रतीक विदेशी लुटेरा सैयद सलार ग़ाज़ीमिया का वध कर राष्ट्रधर्म व मानवधर्म की रक्षा की जिसके परिणाम स्वरूप कोई भी विदेशी आक्रांता भारत देश की तरफ लगभग 153 वर्षों तक आंख उठाकर देखने की जुर्रत नहीं किया ऐसे परम प्रतापी राष्ट्रीय वीर को उनके राष्ट्रीय कद और क्षमता के अनुसार ऐतिहासिक दृष्टि से पुस्तकों में समुचित स्थान न दिया जाना उनकी वीरता,शौर्य ,पराक्रम एवं देशभक्ति का समादर न करना है ! अतः आपसे प्रबल अनुरोध है कि जनभावनाओं का समादर करते हुए सरकार द्वारा संपादित/अनुमोदित/संचालित/प्रकाशित/मुद्रित समस्त पाठ्य पुस्तकों में श्रावस्ती सम्राट राष्ट्रवीर सुहेलदेव राजभर जी के जीवन वृतान्तों को शामिल किया जाना सुनिश्चित करने का कष्ट करें आभारी रहूँगा कि कृत कार्यवाही से हमे भी अवगत कराने की कृपा करेंगे ! सम्मान सहित, भवदीय डॉ पंचम राजभर ex राष्ट्रीय महासचिव , अखिल भारतीय राजभर संगठन , आवास:- कुरथुवा ,सोनहरा ,बरदह ,जनपद आज़मगढ़ उ प्र 276301 मोबाइल 9889506050 ईमेल drprajbhar1962@gmail, com,
    Current Status
    Case closed
    Date of Action
    *19/12/2018*
    *Remarks*
    *Sir, Your grievance is being sent to the concerned state government for further appropriate action.*
    Reply Document
    Officer Concerns To
    Officer Name
    Shri Rajeev Kr. Khare
    Officer Designation
    Section Officer
    Contact Address
    Email Address
    *rajeevkumarkhare.edu@nic.in*
    Contact Number
    01123073397

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  3. Excellent rdmeena Chomu District Jaipur Rajasthan India tribal group 9588046851 pl contact me immediately pl

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  4. महा राजा सुहलदेव राजभर आज भी राजभरो का इतिहास को दबाने की कोशिस हो रही

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