डलमऊ का पलटा हुआ किला की बारादरी
डलमऊ की हवाएं आज भी राजा डलदेव और वहां के बहादुर सैनिको और बाशिंदों की कहानिया सुनाती हैं। राजा डलदेव की मृत्यु जिस जगह पर हुई थी वह आज भी उनका मंदिर बना हुआ है और लोग उन्हें वह “डालबालन” के
नाम से पूजते हैं। डलमऊ की जनता का आज भी भरोसा है की डलमऊ को राजा डलदेव आज भी बुरी ताकतों और मुसीबतों से बचा रहे हैं। अपने वीर राजा और उस युद्ध में शहीद हुए सैनिको और वह के बाशिंदों की याद में आज भी डलमऊ क्षेत्र के लोग पूरे तीन दिन तक शोक मनाते हैं। न सिर्फ डलमऊ बल्कि आस-पास के 16 किलोमीटर तक (पहले डलमऊ का दायरा ज्यादा विस्तृत था पर अब राजनैतिक कारणों से ये सिमट रहा है। ) तक
के क्षेत्र में आज भी लोग राजा डलदेव की वीरतापूर्ण शहादत को नमन करते हुए तीन दिन का शोक मानते हैं और चौथे दिन होली मानते हैं। होली वाले दिन यहाँ मरघट सा माहौल रहता है
परम्परा के नाम राजनीतिकरण-
उस समय जब राजा डलदेव के साथ डलमऊ के बाशिंदों ने डलमऊ की आन-बान-शान के लिए हँसते-हँसते अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया था, उन्हें ये अहसास तक नहीं रहा होगा कि आने वाली पीढ़ियों में ” समाज के कुछ कथित ठेकेदार
” उनके बलिदान और शौर्य को नमन करना तो दूर उस पर भी राजनीति की
रोटियाँ सेंकने लगेंगे। डलमऊ में कई बार होली की तिथि को लेकर मनमुटाव की स्थिति बन चुकी है। डलमऊ के रहने वाले संदीप कहते हैं “होली तो भाई-चारे का त्यौहार है लेकिन कभी-कभी कुछ लोग होली की तिथि को लेकर गुटबाजी करने लगते हैं जो हिंसा का रूप लेने को आतुर हो जाती है।“ कई
बार तो यहाँ के समाज के तथाकथित ठेकेदारों ने ऐसा घिनौना काम किया है की आम तौर पर शांत रहने वाला डलमऊ होली की तिथि को लेकर उग्र हो जाता है। बाकी रही सही कसर वहां के पोंगा पंडित ये कहकर पूरी कर देते हैं की अगर शोक न मनाया तो राजा डलदेव रुष्ट हो जायेंगे और अनहोनियाँ होने लगेंगी।और अपनी बात को सिद्ध करने के लिए दो-तीन संयोगवश हुई घटनाओ का उल्लेख करना बिलकुल नहीं भूलते। लेकिन इस सैकड़ो साल पुरानी परम्परा से अपनों से दूर होते जा रहे लोग कहते हैं की परम्परा का खत्म होना ज़रूरी है क्योकिं अब
ये ना तो व्यावहारिक है ना ही
उचित और वक्त के साथ तो वक्त खुद को भी बदल लेता है। एक होटल में चाय की चुस्कियां ले रहे एक सज्जन थोड़ा जोर देकर कहते हैं कि “राजा डलदेव प्रजा के चिन्तक थे वो भला अपने नगर डलमऊ का अहित क्यों करेंगे ?”
दिखावे की परम्परा-
दिल्ली में रहकर पढाई करने वाले आशुतोष कहते है, “परम्परायें लोगो को जोड़ने के लिए होती हैं ना कि तोड़ने के लिए और अब ये थोपी जा रही है।” डलमऊ के करीब 25 फीसदी लड़के-लड़कियां उच्च शिक्षा के लिए डलमऊ से बाहर रहते हैं तो ऐसे में उनके संस्थानों में जो भी त्योहारों की छुट्टियां बाकी जगहों के अनुरूप होती है तो ऐसे में होली का मज़ा बेमज़ा हो जाता है। डलमऊ से बाहर रहने वाले ज्यादातर युवा या तो होली में रुक ही नहीं पाते और अगर रुक भी गए तो वहां होली की तिथि को लेकर को राजनीति ना कर दे ये भी घबराहट होती है। ग्रेटर नोयडा से इंजीनियरिंग करने वाले कीर्तिमान गुस्से में कहते हैं, “वो परम्परा किस काम की जो हमें बाकि संसार से अलग थलग कर दे और जिसकी वजह से हर होली का मज़ा किरकिरा हो जाता है।“ डलमऊ के ही युवा उद्यमी सुशांत कहते हैं,“जो लोग राजा डल के नाम पर हर साल होली पर राजनीति करते हैं उन्हें मैंने आजतक राजा डल की प्रतिमा पर श्रधान्जली अर्पित करते नहीं देखा।” कानपुर से मैनेजमेंट की पढ़ाई कर रही दिव्या कहती हैं ,“ऐसी परम्परा कसी काम की जो लोगो को अलग-थलग कर रही हो।” भारतीय वायु सेना के जवान अभिनव कहते हैं “पूरे 3 साल बाद आने को मिला है पर होली मना पाउँगा या नहीं ये नहीं जानता।” मेडिकल के छात्रपंकज कहते हैं “ये बहुत दुखदायी है की हम चाह कर अपनों से दूर त्योहार मनाने को मजबूर होते हैं।” सिर्फ बाहर रहने वालो छात्रो या नौकरीपेशा की ही ये समस्या नहीं है बल्कि स्थानीय निवासी भी कभी-कभी इस पर खीजते हैं की हम चाह कर अपने बच्चो या अपने उन लोगो के साथ होली का जश्न नहीं मना पाते जो
बाहर से सिर्फ ये त्यौहार मनाने डलमऊ आते हैं। इस परम्परा की वजह से बहुत सारे लोगो ने अपने लिए होली को खत्म सा मान लिया है।
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