राजा डलदेव डलमऊ
होली के दिन जब पूरा भारत रंगों के रंग से सराबोर रहता है। लोग ठंडाई पीते हुए फाग गाते हुए झूमते-गाते हैं क्या बच्चे और बूढ़े उस दिन सारी दूरियां एक झटके में बौनी हो जाती हैं। बच्चे पिचकारी में रंग भर कर हर आने जाने वालो पर बिना किसी भेदभाव के रंग डालते हैं, ना जात का भेद ना पांत का। लड़के-लडकियां सब टोली बना कर रंगों के रंग में डूबे रहते हैं तो उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में एक जगह ऐसी भी है जहाँ जब दुनिया के आसमान में रंगों के बादल होते हैं तो यहाँ गमों के बादल होते हैं। मैं बात कर रहा हूँ रायबरेली जिला की दक्षिणी दिशा में गंगा नदी के किनारे स्थित प्राक्रतिक सुन्दरता से लबरेज़ एक ऐसे कस्बे “डलमऊ” की जहाँ होली निर्धारित तिथि के ठीक तीन दिन बाद मनाई जाती है और इन तीन दिनों तक वहां के लोग शोक मनाते हैं वहाँ के राजा डलदेव की मृत्यु का जिनकी मौत होली के दिन हो गई थी। वहां के लोग बताते हैं की पुराने दिनों में डलमऊ बहुत ही समृद्ध और वैभवशाली हुआ करता था। डलमऊ के लोग गंगा-जमुनी तहजीब के नुमाइन्दे थे और अभी भी डलमऊ की जमी गंगा-जमुनी तहज़ीब में डूबी हुई है। उस समय डलमऊ में दूर दराज से लोग नावों से आते थे और यहीं से व्यापार करने के लिए राज्य के अन्न भागों में जाते थे। वैभवशाली डलमऊ की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी। इसी वजह से अन्य राजा डलमऊ की सम्पन्नता से बहुत ईर्ष्या का भाव रखते थे किन्तु वो उनसे टक्कर लेने में सक्षम ना थे क्योंकि डलमऊ की प्रजा डलमऊ की आन-बान-शान के लिए अपने प्राण हमेशा हथेली पर रखती थी।
डलमऊ की भव्यता से कुढ़ने वाले तो अनेक राजा थे पर जौनपुर का धूर्त राजा इब्राहीम शर्की, डलदेव और डलमऊ से कुछ ज्यादा ही शत्रु भाव रखता था पर वो चाह कर भी ना कुछ कर सकता था ऐसे में उसने एक कुटिल षड्यंत्र रचा डलमऊ को परस्त करने का। पूरे जगत में पता था की राजा डलदेव होली के दिन अपनी अपनी प्रजा के साथ ठंडाई-भंग छानते हुए होली के त्योहार में मशगूल रहते हैं। इस पर धूर्त इब्राहीम शर्की ने सोचा अगर होली के दिन डलमऊ पर चोरी छिपे हमला कर दिया जाये तो राजा डलदेव और डलमऊ को परस्त किया जा सकता है।
डलमऊ के प्राचीन कालीन खूबसूरत गंगाघाट
धूर्त इब्राहीम शर्की ने होली के ही दिन जब डलमऊवासी अपने राजा के साथ होली के रंगों में सराबोर थे तो उसी समय युद्ध की परम्पराओ को अनदेखा करते हुए डलमऊ पर हमला कर दिया। अचानक हुए हमले से डलदेव और डलमऊ के जनमानस का घबरा जाना लाजिमी था। फिर भी वीरो की भूमि डलमऊ के नाम को परिभाषित करते हुए डलदेव और डलमऊ की जनता ने धूर्त इब्राहीम शर्की की सेना से हिम्मत पूर्वक संघर्ष किया लेकिन अचानक होली के दिन हुए हमले में उन्हें सँभालने का वक़्त तक न मिला और सारे सैनिक भी होली के उन्माद में चूर थे। राजा डलदेव और डलमऊ की वीर जनता ने मरते दम तक दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब दिया लेकिन इस धूर्ततापूर्ण और कायरतापूर्ण हमले के लिए ना तो डलदेव तैयार थे न उनकी सेना और ना ही डलमऊ के बाशिंदे। इस अचानक हुए हमले में बहुत से डलमऊ के सैनिक और बाशिंदे शहीद हुए और अन्तत: राजा डलदेव भी वीरतापूर्वक लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। लोग तो यहाँ तक कहते हैं की राजा डलदेव का सर कट जाने के बाद भी वो लड़ते रहे और कई दुश्मनों को मौत के घाट उतार दिया।
डलमऊ के लोगो की माने तो
जब युद्ध हो रहा था तो राजा डलदेव की मृत्यु के बाद धूर्त शर्की ने जब अपने कदम राजा डलदेव के अन्तःपुर की और बढ़ाये तो रानी और वह की अन्य स्त्रियों ने माँ गंगा से उनकी आबरू बचाने की प्रार्थना की तो राजा डलदेव का पूरा का पूरा किला पलट गया और शर्की के मंसूबे ख़ाक हो गए।
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