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मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव



9.मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव

मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव शिव के परम भक्त थे
वे स्वयं शिवस्वरूप थे, इसीलिए उनकी गणना एकादश
रुद्रों में की गई एवं महापुराणों में उन्हें वीरभद्र के नाम से
जाना गया महाराज वीरसेन भारशिव शिवलिंग धारण करते थे
वे परमेश्वर शिव का अपमान नहीं सह सकते थे
जहां भी यज्ञादि शुभ कार्यों में महेश्वर शिव
की अवहेलना की गई, वहां महाराज वीरसेन भारशिव ने
अथवा उनके सेवकों ने उस यज्ञ का विध्वंश किया
प्रजापति दक्ष के यज्ञ का विध्वंश
किया जाना इसका प्रमाण है उनकी इस प्रवृत्ति के कारण
वैष्णव भारशिवों से गहरी शत्रुता रखने लगे ,और भारशिवों के
विनाश की योजना बनाने लगे वैष्णवों को जब भी अवसर
मिला छल कपट के बल पर भारशिवों को नेस्तनाबूंद करने
का प्रयास करते रहे इतना ही नहीं अपितु धरती काभार
हटाने अर्था धरती से भारशिवों का विनाश करने के लिए
विष्णु का आवाहन करते रहे
शिवस्वरूप भगवान वीरसेन भारशिव चाहते थे
कि सम्पूर्ण भारतीय समाज महेश्वर शिव को आत्मसात
करे ,क्योंकि शिव ही एकमात्र ऐसे आराध्य हैं
जो सभी प्रकार के भेदभाव से परे हैं उनके दरबार में
अमीर-गरीब, उंच-नीच, मित्र-शत्रु, विज्ञ-अल्पा, राजा-
प्रजा, सुर-असुर, आदि का भेदभाव नहीं किया जाता सब
समान रूप से उनके दरबार में प्रवेश पाते हैं महेश्वर शिव
परम सन्यासी हैं ,दूसरे देवों के समान विलासी नहीं
आशुतोष हैं, सहज-आराध्य, सहज-सुलभ हैं भगवान
वीरसेन भारशिव ने समानता के प्रतीक महादेव शिव को भारत
भूमि के हर क्षेत्र में प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया
हमारे देश के हर गांव में हर हर महादेव के दर्शन हो जायेंगे
शायद ही कोई ऐसा गांव मिले जहां शिवालय हो यह
भगवान वीरसेन भारशिव की ही अनुकम्पा है
भगवान वीरसेन भारशिव ने नागौद-नचना में शिवालय
की स्थापना की एवं भारशिव कुलदेव के प्रतीक स्वरूप शिव
मुखलिंग की स्थापना की जबलपुर जिले के भेडाघाट
पंचवटी में भी चतुर्मुख शिवलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा कराई
भेडाघाट का चतुर्मुख शिवलिंग विश्व में अपने प्रकार
का अकेला मुखलिंग है 1 यह अद्वितीय है इसी प्रकार
भगवान वीरसेन भारशिव ने भारतवर्ष में बहुत से
शिवालयों का निर्माण कराया जिन्हें बाद में वैष्णवों ने
अपना बना लिया या यों कहें कि बलात कब्जा कर
भारशिवों के नामपट़ट हटाकर अपने नामपट़ट लगवा लिए
तथा उदर पोषण का जरिया बना लिया
बहराइच के सोमनाथ मन्दिर का निर्माण
भी संभवत; भगवान वीरसेन भारशिव ने ही कराया था
श्री मनीष मलहोत्रा का एक लेख ‘’बहराइच में सोमनाथ
का दूसरा मन्दिर’’ जो कि दैनिक जागरण लखनउ संस्करण
13
जून 1998 में छपा था एवं राजभर मार्तण्ड के
जुलाई5अगस्त-सितम्बर 1999 ईस्वी में साभार प्रकाशित
किया गया था-में जो बहराइच जिला मुख्यालय से 28
किलोमीटर दूर शिवदत्त मार्ग पर लगभग साढे तीन किलोमीटर
दूर छोर पर एक शिवलिंग भगवान शंकर की मान्यताओं से
सम्बंधित प्राइज़ मूर्तियों का जो काल निर्धारण किया है ,वह
मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव के शासनकाल से
पूरी तरह मेल खाता है अतएव, यह मन्दिर महाराज वीरसेन
भारशिव का ही निर्माण कराया हुआ था, इसमें
शंका की गुन्जाइश नहीं है
श्री मनीष मलहोत्रा ने दिल्ली के एक संग्रहालय में
काफी समय पूर्व औरंगजेब द्वारा लिखे गए आदेशपत्र के
देखने की चर्चा की है, जिसमें औरंगजेब ने निर्देश दिए थे
कि दक्षिण के कुछ मन्दिरों के साथ दूसरा सोमनाथ
का मन्दिर भी तोड दिया जाए, क्योंकि महमूद गजनवी और
उसके भंजे सैयद सालार मसूद गाजी जैसे पूर्वजों की इच्छाएं
अधूरी रह गई थीं श्री मनीष मलहोत्रा ने लिखा है कि सैयद
सालार दूसरे सोमनाथ के मन्दिर को लूटने या तोडने
को यहां पहुचता उसके पहले भर-राजभर राणा सुहेलदेव ने उसे
घाघरा के मैदान में अपनी सेना के साथ बढने से रोक दिया
भयंकर युद्ध हुआ और राजभर राणा सुहेलदेव ने सैयद सालार
को घाघरा के म्मैदान में मार गिराया श्री मनीष मलहोत्रा ने
यह भी लिखा है कि उससे पहले ही दूसरे सोमनाथ का मन्दिर
आराधकों द्वारा स्वयं नष्ट किया जा चुका
मैं भी यहां स्पष्ट करना चाहता हूं कि यदि दूसरे
सोमनाथ का मन्दिर आराघकों द्वारा सन 1033 ईस्वी में
स्वयं नष्ट किया जा चुका था तब औरंगजेब जो कि सैयद
सालार से कई सदियों बाद पैदा हुआ ,उसे दूसरे सोमनाथ के
मन्दिर को तोडने का आदेश क्यों देना पडा ? सत्य तो यह है
कि जब सैयद सालार दूसरे सोमनाथ के मन्दिर को लूटने
अथवा तोडने को अपनी सेना के साथ बढा और राजभर
राणा सुहेलदेव को इसकी भनक लगी तब उन्होंने सैयद सालार
से युद्ध किया और उसका बध कर दिया 1 इसके पूर्व
दूसरे सोमनाथ मंदिर के आराधकों ने यहां की मूर्तियां और
अकूत धन जहां का तहां छिपा दिया राजभर
राजा राणा सुहंलदेव की बहन का अपहरण भी सैयद सालार ने
कर लिया था अतएव राजभर नरेश ने सैयद सालार मसूद
गाजी का बध किया और दूसरे सोमनाथ मन्दिर
की रक्षा की तथा बहन अम्बे को मुक्त कराया उस काल
खण्ड में जहां एक ओर अनेक भारतीय शासकों ने
विदेशी लुटेरों की मदद की वहीं दूसरी ओर भारतीय
सभ्यता एवं संस्कृति का ऐसा रखवाला भी मौजूद था जिसने
सैयद सालार सहित उसकी सत्तर हजार फौज को मौत के घाट
उतार दिया

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