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भारशिव वंश



भारशिव वंश
नाग वंश

मगध साम्राज्य के निर्बल हो जाने पर भारत के विभिन्न प्रदेशों में जो अनेक राजवंश स्वतंत्र हो गये थे, उनमें विदिशा का 'नाग वंश' भी एक था। बाद में यह वंश पहले शकों की और फिर कुषाणों की अधीनता में चला गया। अब यौधेयों द्वारा कुषाणों के विरुद्ध विद्रोह करने से जो अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी थी, उससे लाभ उठाकर नागों ने अपनी शक्ति का विस्तार करना प्रारम्भ किया। ग्वालियर के समीप पद्मावती को उन्होंने अपना केन्द्र बनाया, और वहाँ से बढ़ते-बढ़ते कौशाम्बी से मथुरा तक के सब प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। इन प्रदेशों में उस समय कुषाणों का राज्य था। उन्हें परास्त कर नाग राजाओं ने अपने स्वतंत्र राज्य की नींव डाली। बाद में नाग पूर्व की ओर और भी आगे बढ़ते चले गये और मिर्जापुर ज़िले में विद्यमान कान्तिपुरी को उन्होंने अपनी राजधानी बनाया।
भारशिव
ये 'नाग राजा' शैव धर्म को मानने वाले थे। इनके किसी प्रमुख राजा ने शिव को प्रसन्न करने के लिए धार्मिक अनुष्ठान करते हुए शिवलिंग को अपने सिर पर धारण किया था, इसलिए ये भारशिव भी कहलाने लगे थे। इसमें संदेह नहीं कि, शिव के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करने के लिए ये राजा निशान के रूप में शिवलिंग को अपने सिर रखा करते थे। इस प्रकार की एक मूर्ति भी उपलब्ध हुई है। जो इस अनुश्रृति की पुष्टि भी करती है। नवनाग (दूसरी सदी के मध्य में) से भवनाग (तीसरी सदी के अन्त में) तक इनके कुल सात राजा हुए, जिन्होंने अपनी विजयों के उपलक्ष्य में काशी में दस बार अश्वमेध यज्ञ किया। सम्भवत: इन्हीं दस यज्ञों की स्मृति काशी के 'दशाश्वमेध-घाट' के रूप में अब भी सुरक्षित है। भारशिव राजाओं का साम्राज्य पश्चिम में मथुरा और पूर्व में काशी से भी कुछ परे तक अवश्य विस्तृत था। इस सारे प्रदेश में बहुत से उद्धार करने के कारण गंगा-यमुना को ही उन्होंने अपना राजचिह्न बनाया था। गंगा-यमुना के जल से अपना राज्याभिषेक कर इन राजाओं ने बहुत काल बाद इन पवित्र नदियों के गौरव का पुनरुद्धार किया था।  
राजा वीरसेन
भारशिव राजाओं में सबसे प्रसिद्ध राजा वीरसेन था। कुषाणों को परास्त करके अश्वमेध यज्ञों का सम्पादन उसी ने किया था। उत्तर प्रदेश के फ़र्रुख़ाबाद ज़िले में एक शिलालेख मिला है, जिसमें इस प्रतापी राजा का उल्लेख है। सम्भवत: इसने एक नये सम्वत का भी प्रारम्भ किया था।
मगध की विजय
गंगा-यमुना के प्रदेश के कुषाण शासन से विमुक्त हो जाने के बाद भी कुछ समय तक पाटलिपुत्र पर महाक्षत्रप वनस्पर के उत्तराधिकारियों का शासन रहा। वनस्पर के वंश को पुराणों में 'मुरुण्ड-वंश' कहा गया है। इस मुरुण्ड-वंश में कुल 13 राजा या क्षत्रप हुए, जिन्होंने पाटलिपुत्र पर शासन किया।
245 ई. के लगभग फूनान उपनिवेश का एक राजदूत पाटलिपुत्र आया था। उस समय वहाँ पर मुलुन (मुरुण्ड) राजा का शासन था। पाटलिपुत्र के उस मुलुन राजा ने युइशि देश के चार घोड़ों के साथ अपने एक राजदूत को फूनान भेजा था। 'मुरुण्ड' शब्द का अर्थ स्वामी या शासक है। यह शब्द क्षत्रप के सदृश ही शासक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पाटलिपुत्र के ये कुषाण क्षत्रप मुरुण्ड भी कहाते थे।
278 ई. के लगभग पाटलिपुत्र से भी कुषाणों का शासन समाप्त हुआ। इसका श्रेय वाकाटक वंश के प्रवर्तक विंध्यशक्ति को है। पर इस समय वाकाटक लोग भारशिवों के सामन्त थे। भारशिव राजाओं की प्रेरणा से ही विंध्यशक्ति ने पाटलिपुत्र से मुरुण्ड शासकों का उच्छेद कर उसे कान्तिपुर के साम्राज्य के अन्तर्गत कर लिया था। मगध को जीत लेने के बाद भारशिवों ने और अधिक पूर्व की ओर भी अपनी शक्ति का विस्तार किया। अंग देश की राजधानी चम्पा भी बाद में उनकी अधीनता में आ गयी। वायु पुराण के अनुसार नाग राजाओं ने चम्पापुरी पर भी राज्य किया था।
पर मगध और चम्पा के भारशिव लोग देर तक पाटलिपुत्र में शासन नहीं कर सके। जिस प्रकार हरियाणा - पंजाब में यौधेय, आर्जुनायन आदि गण स्वतंत्र हो गये थे, वैसे ही इस काल की अव्यवस्था से लाभ उठाकर उत्तरी बिहार में लिच्छवि गण ने फिर से अपनी स्वतंत्रत सत्ता स्थापित कर ली थी। यौधेयों के सदृश लिच्छवि गण भी इस समय शक्तिशाली हो गया था। कुछ समय पश्चात लिच्छवियों ने पाटलिपुत्र को जीतकर अपने अधीन कर लिया। पुराणों में पाटलिपुत्र के शासकों में मुरुण्डों के साथ 'वृषलो' को भी परिगणित किया गया है। सम्भवत: ये वृषल व्रात्य 'लिच्छवि' ही थे। व्रात्य मौर्यों को विशाखदत्त ने वृषल कहा है। इसी प्रकार व्रात्य लिच्छवियों को पुराणों के इस प्रकरण में वृषल कहकर निर्दिष्ट किया गया है।




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